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२०० | जैन कथामाला (राम-कथा)
अग्रज राम ने समस्या का निदान किया अपनी बुद्धि से । उन्होंने निर्णय किया वन-गमन का। उनकी विचारधारा थी कि जब मैं रहूँगा ही नहीं तो भरत अपने-आप राज्य सँभाल लेगा।
उन्होंने अपना निर्णय पिता को सुनाया तो वे विचार-मग्न हो गये किन्तु हृदय पर वज्र रखकर आज्ञा दे दी। राम ने वनवासी का भेष धारण किया और कन्धे पर धनुष लटकाकर माता अपराजिता को अपना निर्णय सुनाकर आशीर्वाद पाने का प्रयास किया तो माता पर वज्रपात ही हो गया। वह कटे वृक्ष की भाँति भूमि पर अचेत होकर गिर पड़ी । दासियों ने चन्दनादि के लेप और शीतल सुगन्धित जल से सिंचन किया । उसकी मूर्छा टूटी तो वह करुण-क्रन्दन करने लगी।
राम ने समझाया
-माता ! वीरप्रसवा होकर निर्बल हरिणी के समान विलाप क्यों कर रही हो ? पिता के वचन-पालन का ध्यान करो और मुझे वन जाने दो । यदि तुम वाधक बनोगी तो भरत राज्य नहीं लेगा
और पिताश्री का वचन मिथ्या हो जायगा। ____ अनेक युक्तियों से माता अपराजिता (कौशल्या) को समझाकर उन्होंने वन-गमन की आज्ञा प्राप्त कर ली । अन्य माताओं से भी इसी तर्क के सहारे उन्हें आज्ञा मिल गई। ___ श्रीराम वन को जा रहे हैं यह खबर सुनकर जानकी ने भी तपस्विनी का वेश धारण किया और माता कौशल्या से आज्ञा लेने पहुंची । कौशल्या उसके वेश को देखकर फूट-फूटकर रो पड़ी, बोली____-राम तो पिता के वचन की मर्यादा रक्षा हेतु वन जा रहा है और तुम किसका वचन निभा रही हो ? सीता ने विनीत स्वर में उत्तर दिया-माताजी ! पत्नो का धर्म ही पति का अनुगमन करना है।