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राम वन गमन | २०१ कौन पत्नी पति का साथ छोड़ सकती है ? जहाँ वे, वहाँ मैं । उनके विना मेरा अस्तित्व ही क्या है ?
जव कौशल्या ने रुकने का बहुत आग्रह किया तो सीता ने गम्भीर स्वर में पूछ ही लिया
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मातेश्वरी ! आप इस परिस्थिति में पति का साथ देतीं या राजमहल में सुख भोगतीं ?
इस प्रश्न ने कौशल्या की जवान पर ताला लगा दिया और विवशतापूर्वक उसने उसे भी वनगमन की आज्ञा दे दी ।
यही तर्क देकर उसने अन्य माताओं ( सासुओं) से आज्ञा प्राप्त कर ली । पिताश्री ( श्वसुर ) दशरथ को उसने नमस्कार किया तो विवेकी राजा सव कुछ समझ गये । उन्होंने भी आज्ञा दे दी ।
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राम के महल से निकलने ही उनके पीछे-पीछे जनकदुलारी भी चल दी। राम ने उसे वनों के कष्टों के भय दिखाकर वापिस भेजने की बहुत चेष्टा की किन्तु सीताजी का निर्णय अडिग था । उन्होंने एक ही बात कहकर राम का मुँह बन्द कर दिया - नाथ ! न तो आपका यह कर्तव्य है कि मुझे छोड़ दें और न मैं आपका साथ छोड़ सकती हूँ । जीवन भर साथ निभाने का वचन दिया है तो उसे बीच में कैसे तोड़ा जा सकता है ?
आगे-आगे राम और पीछे-पीछे सीता तपस्वी वेश में राजपथ पर निकले तो नगर निवासी उनके त्याग को देखकर जय-जयकार करने लगे। सभी के मुख पर एक ही बात थी - धन्य हैं राम जिन्होंने इतना बड़ा त्याग किया और सीता यह तो नारी जाति में शिरोमणि है जिसने विना कारण ही केवल पति का साथ निभाने के लिए राजमहल के सुखों को छोड़कर वन के भयानक कष्टों को अपनाया है ।