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सीता जन्म : भामण्डल-हरण | १७३ के विरह में विक्षिप्त सा घूमता रहा । उसने धर्माराधन नहीं किया। परिणामस्वरूप बहुत समय तक भवाटवी में भटकता रहा और एक वार हंस-शावक बना । किसी वाज ने उस पर झपट्टा मारा और वह घायल होकर आकाश से जमीन पर आ गिरा । वहीं एक मुनि विराजमान थे। मरणासन्न हंस-शावक को देखकर उनके हृदय में दया उमड़ - आई और उन्होंने पंचनमस्कार मन्त्र उसे सुनाया। उस मन्त्र के प्रभाव से वह किन्नर जाति का दस हजार वर्ष की आयु वाला व्यंतर देव हुआ।
वसुभूति का जीव सौधर्म देवलोक से च्यवकर वैताढय पर्वत पर रथनूपुर नगर का राजा चन्द्रगति हुआ और अनुकोशा का जीव पवित्र चरित्र वाली उसकी पत्नी पुष्पवंती।
अतिभूति का जीव कालधर्म पाकर विदग्ध नगर के राजा प्रकाश सिंह की रानी प्रवरावली के गर्भ से कुलमण्डित नाम का पुत्र हुआ।
कयान ब्राह्मण का जीव भी भोगासक्त हुआ भव वन में भटकता रहा और चक्रपुर नगर के राजा चक्रध्वज के पुरोहित घूमकेश की स्त्री स्वाहा के गर्भ से पिंगल नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। __ पिंगल ने अनुक्रम से पौगंडावस्था में प्रवेश किया और गुरु आश्रम में विद्याभ्यास के लिए रहने लगा। वहीं राजा चक्रध्वज की पुत्री अतिसुन्दरी भी विद्यार्जन करती थी। दोनों साथ-साथ पढ़ने लगे। कितने ही काल तक परस्पर साथ रहने से दोनों में प्रेम का अंकुर फूट निकला। वाल्यावस्था का सहज प्रेम युवावस्था तक आते-आते कामभाव में परिणत हो गया।
युवावस्था उच्छृखल होती ही है । पिंगल भी अतिसुन्दरी को ले भागा और विदग्धनगर जा पहुंचा। दोनों प्रेमी युगल भाग तो आये किन्तु प्रेम से पेट नहीं भरता और क्षवा की वेदना कामेच्छा से अधिक तीव्र होती है । कला विज्ञान विहीन पिंगल ईधन आदि बेचकर गुजरवसर करने लगा।