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१७४ | जैन कथामाला (राम-कथा)
एक बार राजकुमार कुलमण्डित की दृष्टि अतिसुन्दरी पर पड़ी। राजकुमारी का रूप मलिन वस्त्रों में भी छिप नहीं रहा था । कुमार उसकी ओर आकर्षित हो गया। राजकन्या भी कुमार पर रीझ गई और कुलमण्डित अतिसुन्दरी को साथ लेकर चल दिया।
प्रेमी हृदय अविवेकपूर्ण कार्य तो कर डालता है परन्तु संसार से भयभीत ही रहता है । राजकुमार के हृदय में भी विचार आया'यदि पिताजी ने इस कन्या को स्वीकार नहीं किया तो....' __और वह राजमहल न जाकर जंगल की ओर चल दिया तथा किसी दुर्ग देश में पल्ली बनाकर रहने लगा।
पिंगल ने घर आकर जब अतिसुन्दरी को न देखा तो वह बहुत दुखी हुआ और उसे ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर भटकने लगा । भटकतेभटकते उसे एक वार आचार्य आर्यगुप्त के दर्शन हो गये । उनके श्रीमुख से उसने धर्म श्रवण किया और दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा तो उसने ले ली और तप संयम भी पालन करता था किन्तु उसके हृदय से अतिसुन्दरी की स्मृति निकली नहीं। लेकिन तप का का फल स्वर्ग प्राप्ति ही है अतः वह मरकर सौधर्म देवलोक में देव हुआ।
कलमण्डित ने जीविका निर्वाह के लिए लूट मार करना प्रारम्भ कर दिया और वह राजा दशरथ के प्रान्त भाग में यदा-कदा प्रजा का धन छीन ले जाता।
दशरथ जैसे प्रतापी नरेश के लिए यह असह्य था कि कोई उनकी प्रजा को पीड़ित करे। उन्होंने वालचन्द्र सामन्त को कुलमण्डित के पराभव हेतु नियुक्त किया। सामन्त ने उसे बन्धनों में जकड़ा और राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया । वहुत काल तक वन्दीगृह में रखकर राजा दशरथ ने उसे छोड़ दिया और वह उद्देश्यहीन इधर-उधर भटकने लगा।