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१५८ | जैन कथामाला (राम-कथा) ..
राजा दशरथ की जिज्ञासा जाग्रत हो चुकी थी। इन्होंने आग्रहपूर्वक कहा
--बात को उड़ाइये मत, ऋषिवर ! -न सुनो तो ही अच्छा है, अन्यथा तुम भी चिन्तित हो जाओगे।
-तव तो आपको बताना ही पड़ेगा। अब मैं सुने विना न रहूंगा। -दशस्थ के स्वर में विशेप आग्रह था।
नारद जी वोले
-लोग स्वयं तो पीछे पड़ जाते हैं और बदनाम होता हूँ मैं । पहले तो मुझसे वात कहलवा लेते हैं फिर बदनाम करते हैं कि नारद इधर-की-उधर लगा देते हैं। अब मैं क्या करूं झूठ बोल नहीं सकता और सत्य कहे विना पीछा नहीं छूटता। __-तो कौन वाध्य करता है आपको मिथ्या भाषण के जिए, सच ही कहिए । मैं भी सत्य ही सुनना चाहता हूँ।
देवपि कहने लगे-राजा दशरथ ! तुम मानोगे तो हो नहीं। सुनो
-लंकेश की राज्यसभा में भूत-भविष्य को जानने वाला एक निमित्तज्ञानी आया। रावण ने उससे पूछा-'मेरी मृत्यु स्वाभाविक रूप से होगी अथवा अन्य किसी के हाथों ?' निमित्तज्ञ निर्भीक था। उसने स्पष्ट शब्दों में बताया-'मिथिलापति राजा जनक की पुत्री के कारण अयोध्यापति राजा दशरथ का पुत्र तुम्हारा प्राणान्त कर देगा।'
दशरथ और उसके सभासदों के मुखों पर चिन्ता की लकीरें खिंच गई । राजा ने पुनः प्रश्न किया----फिर क्या हुआ?
'हुआ क्या !' नारदजी बताने लगे--विभीषण एकदम आसन