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: १७: वरुण-विजय
पवनंजय ने अपने वाक्चातुर्य से वरुणराजा के साथ सन्धि करके खर-दूषण को मुक्त करा लिया। रावण का उद्देश्य पूरा हो चुका था अतः वह सन्तुष्ट हो गया। रावण अपने शिविर सहित लंका लौट आया और पवनंजय उसकी अनुमति लेकर अपनी नगरी को चल दिये।
राजमहल में आकर पवनंजय ने माता-पिता को प्रणाम किया और सातवीं मंजिल पर अंजना के भवन में पहुँचे। वहाँ अंजना को न देख उन्होंने एक दासी से पूछा
-अमृतांजन के समान मेरी प्राण-प्रिया अंजना कहाँ है ?
कुमार के बदले रूप को देखकर दासी चकित रह गई। वह कुछ बोल ही न सकी।
पवनंजय ने ही पुनः पूछा-- -~-बोलती क्यों नहीं ? कहाँ है अंजना ? दासी विनम्र स्वर में बोली
-स्वामी ! आपके जाने के कुछ मास बाद ही उसके गर्भ दोष के कारण आपकी माता ने उसे निकाल दिया। सेवक उसे महेन्द्रपुर नगर के बाहर वन में छोड़ आये ।