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१२४ | जैन कथामाला ( राम कथा )
- और उसकी सखी वसन्ततिलका ?
- वह भी उनके साथ थी ।
यह सुनकर पवनंजय पवनवेग के समान महेन्द्रनगर जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने किसी स्त्री से पूछा
- यहाँ राजकुमारी अंजना आई थी ?
- हाँ अपनी सखी वसन्ततिलका के साथ आई तो थी किन्तु व्यभिचार दोष के कारण राजा ने उसे रखा नहीं, निकाल दिया ।
वज्रपात हो गया पवनंजय पर ! उसे आशा थी कि अंजना यहाँ तो मिल ही जायेगी । अव वह वनों में, पर्वतों में प्रिया को खोजने लगा पर कहीं पता न लगा । सदा साथ रहने वाला मित्र प्रहसित भी संग-संग लगा हुआ था । मित्र के दुःख से वह भी अति दुःखी था । एक दिन कुमार ने मित्र से कहा
- मित्र ! तुम जाओ और माता-पिता से कह देना कि मैं तो सती अंजना को ढूँढ़ने जाता हूँ । यदि वह मिल गई तो वापिस आ जाऊँगा अन्यथा चिता में जलकर प्राण दे दूँगा ।'
"
प्रहसित ने कुमार को समझाने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु वह माना नहीं । विवश होकर प्रहसित ने यह समाचार राजा प्रह्लाद और रानी केतुमती को सुना दिया। रानी केतुमती तो सुनते ही अचेत हो गई । शीतल और सुगन्धित जल आदि के उपचार से चेतना लौटी तो प्रहसित से कहने लगी
- अरे वज्रहृदय ! तू कुमार का कैसा मित्र है ? उसका ऐसा निर्णय जानकर भी अकेला छोड़ आया । मैं तो मूर्खा हूँ ही कि अपनी सती वधू को कलंक लगाकर निकाल दिया । इस पाप का फल मुझे तो भुगतना ही पड़ेगा किन्तु कोई कुमार के प्राणों की रक्षा तो करो ।