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७४ | जैन कथामाला (राम-कथा) निर्णय से हिंसक यज्ञों का मार्ग खुल जायगा। मुझे अनेक जन्मों तक नरक के दुःख भोगने पड़ेंगे और असंख्य प्राणियों की हत्या होगी। न जाने यह पाप की प्रणाली कव तक चलेगी? मातेश्वरी ! मुझे वचन से मुक्त कर दो। मैं अभी चलकर उन दोनों में समझौता कराये देता हूँ। पर्वत को समझा-बुझाकर सत्य मार्ग पर ले आऊँगा।
-नहीं निर्णय तो राज्य-सभा में सभी के समक्ष होगा और वह भी मेरे पुत्र के पक्ष में और करने वाले होगे तुम ! -माता के स्वर में दृढ़ता थी। __-ऐसी कठिन परीक्षा मत लो मातेश्वरी ! एक पुत्र के मोह में पड़कर असंख्य प्राणियों की हत्या का मार्ग मत खोलो। इस घोर पाप से डरो !-वसु ने निरीहतापूर्वक कहा। __-मुझे नहीं मालूम था कि शुक्तिमती नगरी का स्वामी ऐसा डरपोक और कायर है कि अपने वचन का पालन भी न कर सकेगा। -गुरुमाता के व्यंग्य भरे शब्द निकले। ___ 'डरपोक' और 'कायर' ये दो शब्द ऐसे हैं जिन्हें कोई साधारण मनुष्य भी नहीं सुन सकता तो क्षत्रिय राजा वसु इस आरोप को कैसे सह जाता वह उत्तेजित होकर बोला-- ___-तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। निर्णय तुम्हारे पुत्र के ही पक्ष में करूंगा। संसार को दिखा दूंगा कि क्षत्रिय अपने वचन का पालन प्राण देकर भी करते हैं । तुम निश्चिन्त होकर जाओ। वसु न . कायर है न डरपोक !
माता आश्वस्त होकर चली आई। राज्य सभा में पर्वत और नारद के विवाद का निर्णय हुआ। निर्णय तो वसु रात को ही कर चुका था। केवल सार्वजनिक रूप से भरी सभा में उसको शब्दों में परिणत कर दिया गया।