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हिंसक यज्ञों की उत्पत्ति | ७३ - कोई ऐसी युक्ति करो माँ कि मेरी इज्जत रह जाय ।
माता का सबसे बड़ा बल उसका पुत्र होता है तो वही उसकी निर्बलता भी । पुत्र मोह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है । वह अपने पुत्र को दुःखी नहीं देख सकती चाहे वह कुमार्गगामी ही क्यों न हो । पर्वत की माता भी पुत्र मोह से ग्रसित हो गई । वह रात्रि को ही वसु के भवन में पहुँची । वसु ने गुरुमाता का यथोचित आदर किया और पूछा
- मेरे योग्य कोई कार्य ?
- मुझे पुत्र की भिक्षा चाहिए, वसु !
'पुत्र - भिक्षा' शब्द सुनकर वसु क्षुब्ध हो उठा, कहने लगामाता ! कौन दुष्ट है, जिसने मेरे गुरुभाई पर्वत को विपत्ति में डाल दिया । मैं उसका प्राणान्त कर दूँगा । तुम मुझे उसका नाम तो बताओ ।
माता बोली- राजा वसु ! नाम तो क्या, मैं पूरी बात ही वता दूंगी । तुम मुझे पर्वत की रक्षा का वचन तो दो । ——वचन दिया ! पर्वत का बाल भी बाँका नहीं होगा । अब तो पूरी बात बता दो ।
राजा वसु को वचनवद्ध करके गुरुमाता ने ने पूरी बात बता दी । सिर पकड़कर बैठ गया । उसके मुख से निकला
वसु
- मातेश्वरी ! किस धर्म-संकट में डाल दिया । पक्ष तो नारद का ही सत्य है । मैं झूठ कैसे वोलूं ?
- झूठ और सत्य मैं नहीं जानती। मुझे तो इतनी सी बात से मतलव है कि तुमने पर्वत की रक्षा का वचन दिया है और क्षत्रिय अपने वचन का पालन प्राण देकर भी करते हैं ।
- प्राण तो देने को तत्पर हूँ माँ ! अभी ले लो । किन्तु मेरे विपरीत