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समुद्रपार देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्धों के संदर्भ में धनदेव की कथा से ज्ञात होता है कि समुद्रपार के देशों में भारतीय व्यापारी पहुँच कर निम्नोक्त कार्य करते थे:-जहाज किनारे लगते ही सभी व्यापारी उतरते, विक्री के सामानों के उतारते, भेंट लेकर वहाँ के राजा से मिलते, उसे प्रसन्न कर वहाँ से व्यापार करने की अनुमति प्राप्त करते, निर्धारित शुल्क का भुगतान करते, हाँथ के संकेत से मूल्य तय करते और माल बेचते, अपने देश को ले जाने वाली व्यापारिक वस्तुओं की क्रय करते, जो उस देश में लाभ प्राप्त हुआ हो उसके अनुसार वहाँ की धार्मिक संस्थाओं को दान देकर अपने देश-वापसी का प्रस्थान करते थे। व्यापारी दल के नेता सार्थवाह द्वारा राजा को भेंट प्रस्तुत करते हुये दिखाया गया है।401
कुवलयमाला+02 में समुद्रयात्रा के वर्णन के प्रसंगों में अधोलिखित जलमार्गों की जानकारी प्राप्त होती है:
1. सोप्पारक से चीन, महाचीन जानेवाला मार्ग, 2. सोप्पारक से महिलाराज्य (तिब्बत) जानेवाला मार्ग,403 3. सोपारक से रत्नद्वीप404, 4. रत्नद्वीप से तारद्वीप405, 5. तार द्वीप से समुद्र तट06, 6. कोशल से लंकापुरी407, 7. पाटलिपुत्र से रत्नद्वीप के रास्ते में कुडंगद्वीप408 8. सुवर्णद्वीप से लौटने के रास्ते में कुडंगद्वीप409 9. लंकापुरी की ओर जाते हुये रास्ते में कुडंगद्वीप410 10. जयश्री नगरी से यवनद्वीप411 11. यवनद्वीयप से पाँच दिन-रात का रास्ता वाला चन्द्रद्वीप का मार्ग 12 12. समुद्र तट से रोहण द्वीप+13 13. सोपारक से बब्वर कुल+14 14. सोपारक से स्वर्णद्वीप'15
स्थल-मार्ग में सार्थ द्वारा यात्रा करना भी निरापद नहीं था। सार्थवाह की सजगता,एवं सुरक्षा के बावजुद रास्ते की जंगली जातियों एवं चोरों का भय बना रहता था। दक्षिणापथ के यात्रियों के लिए विन्ध्याटवी से पार होना सबसे अधिक कठिन था। वहाँ को भिल्ल जातियों के आक्रमण एवं जंगली क्षेत्र होने से यात्रियों को सदैव भय बना रहता था। समराइच्च कहा और कुवलयमाला में शबर आकमणों का वर्णन है।416 | उद्योतन ने वैश्रणमदत्त सार्थवाह के
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