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________________ पलय-याज्ञवल्क्य-स्मृति में एकपलय को चार या पाँच सुवर्ण के बराबर माना गया है। उद्योतन ने मांस और मासा इन शब्दों का प्रयोग किया है। सम्भवत: एक सिक्का एवं दूसरा तौल के लिए प्रचलित रहा हो ।381 मनुस्मृति382 एव अर्थशास्त्र383 के अनुसार ताबें का मासा तौल में पांच रत्ती और चाँदी का दो रत्ती का होता था। मण-प्रयमाण, मासा, रत्ती, रुपया, बराटिका, सुवर्ण, एगारसगुणा आदि नाप-तौल-मुद्रा प्रचलित थे। श्रेष्ठि कुवलयमाला में वर्णित वाणिज्य एवं व्यापार के प्रसंगो से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में श्रेष्ठियों का महत्वपूर्ण स्थान था। व्यापारियों के संगठन का श्रेष्ठि प्रधान होता था। अत: श्रेष्ठियों को नगर श्रेष्ठि आदि नाम से भी जाना जाता था। कुवलयमाला में श्रेष्ठि पद को सूचित करने वाले निम्नोक्त शब्द मिलते हैं। 1. भद्रश्रोष्ठ384, 2. महानगर श्रेष्ठि85, 3. महाधन श्रष्ठि86 4. जुण्णसेट्टि। व्यापार के लिये समुद्री तथा स्थल यात्राएँ प्राचीन भारतीय समाज के लोगों की यह सामान्य धारणा हो गयी थी कि समुद्र-यात्रा के द्वारा अधिक धन अर्जित किया जा सकता है। मृच्छकटिक में विदूषक की इस भावना का-'भवति किं युष्माकं यानपात्राणि वहन्ति' ?388 तथा बाण के इस कथन अब्भ्रमणेन श्री समाकर्षण389 का उद्योतन ने धनोपार्जन के साधनों में सागरसन्तरण को प्रमुख स्थान देकर समर्थन किया है।390 जैन साहित्य में उल्लिखित समुद्र यात्राओं के वर्णनों से यह स्पष्ट हो गया है कि दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में भारतीय व्यापारी लम्बी समुद्री यात्रायें करने लगे थे।391 समुद्री व्यापार करने में धनार्जन का लोभ होता था परन्तु इसके लिए साहसी होना पड़ता था। जलमार्ग की कठिनाइयाँ बहुत थीं। सीमा तट के बन्दर गाहों पर विदेशियों का धीरे-धीरे अधिकार होता जा रहा था। अत: भारतीय व्यापारियों को चीन स्वर्णद्वीप, रत्नद्वीप आदि जाने के लिए अन्य मार्ग अपनाने पड़ते थे। कुवलय माला के अनुसार सोपारक से ( 70 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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