SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विवाह के लिये हरिभद्र ने धर्म को भी एक योग्यता माना है । समान धर्म मानने वालों का सम्बन्ध श्रेयस्कर होता है। यदि पति पत्नी विपरीत धर्म के अनुयायी हैं तो जीवन कलहपूर्ण होगा । समान धर्म होने के कारण कटुता नहीं उत्पन्न होती है । विपरीत धर्म का अनुयायी होने के कारण सौहार्द पूर्ण वातावरण समाप्त हो जाता है । हरिभद्र ने स्पष्ट कहा है “संजोएभि अवच्वं असाहम्मिएणं 184 ।” सन्तान का विवाह विपरीत धर्म के अनुयायी के साथ नहीं होना चाहिए। शील परीक्षा नामक लघुकथा में सुभद्रा का विधर्मी से विवाह होने का कटुफल हरिभद्र ने बड़े सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है । सुभद्रा जैन धर्म की अनुयायी थी और उसके ससुराल पक्ष के लोग बौद्ध धर्म को मानते थे। घर का वातावरण द्वेषपूर्ण हो गया सुभद्रा की सास और ननदों ने उसके जीवन को नरक तुल्य बना रखा था। उसके ऊपर दुष्चरित्रता का लांछन लगाया परिणाम स्वरूप उसे पतिव्रता की परीक्षा देनी पड़ी 185 | हरिभद्र ने वर खोजने की 186 प्रथा का भी संदर्भ दिया है। शंखपुर के राजा शंखायन ने अपनी कन्या रत्नवती का एक सुन्दर चित्र बनवाकर उसके समान रुप सौन्दर्य और कला प्रवीण वर की खोज कराया। चित्र और संभूति नाम के व्यक्ति स्थान-स्थान पर उस चित्र को लेकर वर को खोज के लिये गये थे । हरिभद्र ने विवाह संस्कार में की जाने वाली क्रियाओं का उल्लेख इस प्रकार किया है: - ( समराइच्चकहा पृ. 93-100 का ऊण य नेहि) 1. वाग्दान - विवाह के लिए वाक्दान के अवसर पर मंगलवाद्य और नृत्य का प्रचार था, 2. विवाह का शुभ दिन निश्चित करना - विवाह की तिथि निश्चित करने के लिए ज्योतिषी आमन्त्रित किये जाते थे, 3. यथोचित दान की घोषणा - विवाह निश्चित हो जाने पर दान दिया जाता था, ( 43 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy