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हरिभद्र ने विवाह के महत्वपूर्ण कार्य और उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है “कुसलेण अणुयत्तिव्वो लोयधम्मो, कायव्वा कुसलसंतती, जइयव्वं परोव पारे, अणुयत्तिव्वो कुलक्कमों"181 । अर्थात कुशल बनकर लोक धर्म-सांसारिक कार्यों को करना, योग्य संतान उत्पन्न करना, परोपकार में लगे रहना, कुल परम्परा के अनुसार कार्य करना विवाह का लक्षय है। विवाहित जीवन द्वारा लोक धर्म का अभ्यास कर लेने पर, गृहस्थ आश्रम के अनुभवों द्वारा परिपक्वता प्राप्त कर लेने पर, पुरुषार्थ के सिद्ध हो जाने पर, वंश के प्रतिष्ठित हो जाने पर, लोकशक्ति का अनुभव होने पर, विकारों के समाप्त होने पर, सद्गुणों का अविर्भाव हो जाने के पश्चात्, सन्यास ग्रहण करना उचित होता है। जीवन के विकास के लिये, विवाह आवश्यक है। जैन कथाओं से विवाह के प्रकारों पर अधिक प्रकाश नहीं पड़ता है। राजधरानों में प्रेम-विवाह होते थे। कुसुमावली और सिंह कुमार का विवाह तथा विलासवती और सनत्कुमार का विवाह प्रेम-विवाह था1821
राजघरानों को छोड़ कर जनसाधारण में विवाह के लिये निम्न मानदण्ड थे183 ।:
1. वय-रूप,
2. विभव,
3. शील,
4. धर्म,
वय का अर्थ यह था कि वर और कन्या समान आयु के हों। दोनों की सुन्दरता भी सम हो। अत: हरिभद्र ने वर-कन्या की प्रथम अर्हता समान वय-रूप मानी है। धन-सम्पत्ति में भी दोनो समान होने चाहिए अत: हरिभद्र ने समान वैभव को दूसरी योग्यता माना है।
समान शील वर कन्या के लिये तो सरी योग्यता है। इसका अर्थ परिवार की कुलीनता से है। इसलिए वर-कन्या का कुल समान होना चाहिए।
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