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याक्षिणी भक्त माना जाता था। भक्ति विशेष के कारण यक्ष यक्षिणी तीर्थकर को अपने सिर पर भी धारण करने लगे थे। उद्द्योतन के समय इस परम्परा का अधिक प्रचार रहा होगा, इसीलिए उन्होंने एक कथा का रूप देकर इसका उल्लेख किया है। वर्तमान में क्रमदेव की मूर्ति को सिर पर धारण किये हुए यक्षिणी की दो प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं। मथुरा संग्रहालय में 45 सेमी. ऊँची यक्षिणी की पाषाण मूर्ति है, जिसके ऊपर पद्यासन और ध्यान मुद्रा में जिन प्रतिमा बनी हुई है। दूसरी मूर्ति मध्यप्रदेश के विलहरी ग्राम (जबलपुर) के लक्ष्मण सागर तट पर खैरामाई की मूर्ति है, जो चक्रेश्वरी यक्षिणी है तथा जिसके मस्तक पर आदिनाथ की प्रतिमा है।11 यक्षिणी की मूर्ति के ऊपर जिन प्रतिमा का स्थापन लगभग आठवीं शताब्दी से प्राप्त होने लगता है। यू. पी. शाह ने इस पर विशद प्रकाश डाला है ।12 जिन प्रतिमा को सिर पर धारण किये हुए यक्ष-मूर्तियाँ ग्यारहवीं सदी से पहले की प्राप्त नहीं होती। किन्तु उद्योतन सृरि के उल्लेख से ज्ञात होता है 8 वीं सदी में भी ऐसी मूत्रियां बनने लगी थीं। राजस्थान में चित्तौड़ के पास बाँसी नामक स्थान से जैन कुबेर की मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके सिर तथा मुकुट पर जिन प्रतिमा स्थापित है।13
कुवलयमाला के अनुसार आठ देव कन्याओं का वर्णन उपलब्ध है 1. स्वर्णकलश लिए हुए (भिगार)
2. पंखा धारण किये हुए (तलियण्टे अण्णे)
3. स्वच्छ चांवर लिए हुए (अण्णेगेहंति चामेर विमले)
4. श्वेत छत्र लिए हुए (धवलं च आयवत्तं)
5. श्रेष्ठ दर्पण लिए हुए (अवरे वर-दप्पण-विहत्था)
6. मृदंग धारण किए हुए (मुंइम हत्था)
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