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अध्याय 4
मूर्तिशिल्प और स्थापत्य जैन कथाओं के अनुशीलन से जैन मूर्ति पूजा तथा मंदिर आदि से सम्बन्धित स्थापत्य पर प्रकाश पड़ता है। कुवलयमाला में उल्लेखनीय पद्म प्रभ देव सौधर्म विमान जिन गृह में प्रविष्ट हुआ। वहाँ उसने नाना प्रकार की जिनवर प्रतिमाओं को देखा। कोई प्रतिमा स्फटिक मणि से, कोई सूर्यकान्त मणि से कोई महानील मणि से, कोई कर्केतन रत्न से निर्मित थी। कोई प्रतिमा मुक्ताफल से निर्मित थी, कोई मरकत-मणि से निर्मित थी एवं श्यामल वर्ण की थी। इससे इंगित होता है कि मूर्तियाँ कई रंगो वाली होती थीं। तथा विभिन्न प्रमाण और मानयुक्त होती थी। कभी-कभी मूर्तियों कई द्रव्यों के मिश्रण से निर्मित होती थी और धातु से साँचे में ढाल कर बनाई जाती थीं। आठवीं शताब्दी की इस प्रकार की बहुत सी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। प्रमाण और मानयुक्त मूर्तियाँ ही श्रेयस्कर समझी जाती थीं। मूर्ति निर्माण में शास्त्रविहित द्रव्यों में स्फटिक, पद्मराग, वज्र, वैदूर्य, पुण्य तथा रत्न का उल्लेख मिलता है। श्वेत संगमरमर की तीर्थंकर मूर्तियाँ आठवीं शताब्दी से उपलब्ध होने लगती हैं। । मुक्ताशैल से निर्मित शिवलिंग' तथ चषक' का उल्लेख बाण ने भी किया है। यक्ष प्रतिमा के ऊर तीर्थकर की मूर्तियाँ बनी हुई प्राप्त हुई हैं। रत्न शेखर यक्ष की कथा के प्रसंग में उद्योतन ने उल्लेख किया है कि उसने भगवान ऋषम देव की भक्ति करने के लिए अपनी मुक्ता शैल से एक बड़ी प्रतिमा को निर्मित किया तथा उसके मुकुट के ऊपर ऋषम देव की मूर्ति को स्थापित किया। मथुरा संग्रहालय से प्राप्त तीर्थंकरों की 33 प्रतिमाओं में से 3 पर विशेष प्रकार के चिन्ह भी अंकित पाये गये हैं।10
लगभग आठवीं सदी से तीर्थीकरों की प्रतिमाओं के साथ उनके अनुचर के रूप में यक्ष-यक्षिणिओं की प्रतिमाएँ भी बनायी जाने लगी थीं। प्रत्येक तीर्थंकर का एक-एक यक्ष और
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