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इनको इन्द्र की आठ अप्सराऍ कहा गया है तथा भारतीय साहित्य में अष्टकन्या के रूप में इनका पर्याप्त उल्लेख हुआ है। 15 बालमीकि रामायण में रावण के विमान के साथ अष्टकन्याओं का उल्लेख है, जिनमें दो वीणा और मृदंग के स्थान पर स्वर्णप्रदीप एवं तलवार धारण किये हुई हैं।16 राम के अभिषेक के समय भी इस प्रकार की कन्याओं का उल्लेख है। 17 महाभारत में राजा युधिष्ठिर प्रातः काल अन्य मांगलिक द्रव्यो के साथ अष्टकन्याओं के भी दर्शनकरता था। 18 यात्रा प्रारम्भ करते समय अष्टकन्याओं को देखना शुभ माना गया है। ललितविस्तार में इन आठ कन्याओं के नाम इस प्रकार आये हैं ।—
1. पूर्णकुम्भ कन्या 2. मयूरहस्तकन्या 3. लालवृटटंक कन्या 4. गंधोदक भृंगार कन्या 5. विचित्र पटलक कन्या 6. प्रलम्बकमाला कन्या 7. रत्न-भद्रालंकार कन्या तथा 8. भद्रासनकन्या 19 ये आठ दिव्य कन्याएँ बौद्ध तथा जैन धर्म में समानरूप से मांगलिक मानी जाती थी । वास्तु कला में भी इनका अंकन होने लगा था । मथुरा में प्राप्त रेलिंग पिलर्स में इनका अंकन पाया जाता है 120
कुवलयमाला के अनुसार समवसरण के निर्माण में ऊँचे स्वर्ण निर्मित तोरणों पर मणियों से निर्मित शालमंजिकायें लक्ष्मी की शोभा प्राप्त कर रही थी । 21 ऋषमपुर में चोर के भवन में ऊँचे स्वर्ण के तोरणों पर श्रेष्ट युवतियाँ सुशोभित हो रही थीं 1 22 शालभंजिका और लक्ष्मी की तुलना बाण ने हर्षचरित्र 23 में भी की है। शालभंजिकाऍ भारतीय स्थापत्य में प्राचीन समय से प्रचिलित रहीं हैं । प्रारम्भ में फूले हुए शालवृक्षों के नीचे खड़ी होकर स्त्रियाँ उनकी डालों को झुकाकर और पुष्पों के झुग्गे तोड़क्रीड़ा करती थीं, जिसे शालभंजिका क्रीड़ा कहते हैं थे । पाणिनि की अष्टाध्यायी24 में इस प्रकार की क्रिडाओं के नाम आये हैं । वात्स्यान की जयमंगला टीका में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है। धीरे धीरे वह उस क्रीडा की मुद्रा और उस मुद्रा में खड़ी हुई स्त्री भी शालमंजिका कही जाने लगी। बाद में इस मुद्रा में स्थित स्त्रियों का भी अंकन कला में होने लगा। सांची, भरहुत, मथुरा में तोरण बँडेरी और स्तम्भ के बीच में
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