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पुरूषार्थ से शुन्य हुए गुणों को अपने कारण में लीन हो जाना; अथवा चिति-शक्ति का अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाना कैवल्य है।
गुणों की प्रवृत्ति पुरूष के भोग और अपवर्ग के लोटे, जय ह योजन सिद्ध हो जाता है, जब उस पुरूष के प्रति उसका कर्तव्य शेष नहीं रहतः । नालिय वे अपने कारण में लीन हो जाते हैं। इस प्रकार पुरूष का अन्तिम लक्ष्य अपवर्ग सम्पादन करने के पश्चात् गुणों का अपने कारण में लीन हो जाने का नाम कैवल्य है। अथवा यो समझना चाहिये कि धर्मी चित्त के परिणाम-क्रम बनाने वाले गुणों का अपने कारण में लीन हो जाने पर चिति-शक्ति (पुरूष) का चित्त से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रहने पर (शुद्ध परमात्मा) स्वरूप में अवस्थित हो जाने का नाम कैवल्य है।
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