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________________ क्लेशों से कर्मकी वासना उत्पन्न होती हैं। कर्म यानाअंमलपी वृक्ष उत्पन्न होते हैं। उस वृक्ष में जाति, आयु भोगरूपी तीन प्रकार के फल लगते हैं। इन तीनों फलों में सुख दुःख रूपी दो प्रकार का स्वाद होता है। ___ जो पुष्प कर्म अर्थात हिंसा रहित दूसरे के कल्याणाथ कर्म किये जाते हैं, उनसे जाति आयु और भोग में सुख मिलता है, और जो पापकर्म अर्थात् हिसात्मक दूसरों को दुःख पहुंचाने के लिए कर्म किये जाते हैं, उनसे जाति आयु और भोग में दुःख पहुँचता है। किंतु यह सुख भी तत्व वेत्ता की दृष्टि में दुःख रूप ही है, क्यों कि विषयों में परिणाम, दु:ख तप दुःख और संस्कार दु:ख मिला हुआ होता है; और तीनो गुणों के सदा अस्थिर रहने के कारण उनकी सुख दुःख और मोहरूपी वृतियाँ भी बदलती रहती हैं। इसलिये सुख के पीछे दुःख का होना आवश्यक है। इस प्रकार चित्त को एक ऐसा दर्पण समझना चाहिये, जिसमें सूर्य का प्रकाश पड़ रहा हो और अन्य विषयों का प्रतिबिम्ब आ रहा हो। उस शका के निवरणार्थ कि जब चित्त से ही सब व्यवहार चल रहे है और उसी में सब वासनाएँ रहती हैं तो दृष्टा प्रमाण शून्य होकर चित्त ही भोक्ता सिद्ध हो जायेगा। समाधि द्वारा जब योगी को पुरूष और चित्त के भेद का साक्षात्कार हो जाता है, तब उसकी आत्मभाव भावना कि मैं कौन हूँ, किया हूँ, कैसा हूँ,-इत्यादि निवृत्त हो जाती है। अव इस पाद के अन्तिम सूत्र में कैवल्य का स्वरूप बतलाये है। पुरूषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्यं स्वरूप प्रतिष्ठा वा चिति-शक्तेरिति 450 ॥ 34 ॥ ( 161)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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