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समाधि कहते हैं। इसके चार भेद हैं। (9) विर्तक-किसी सपूल विषय में चित्त वृत्ति की
एकाग्रता।
(2) विचार-किसी सूक्षम विषयों में चित्तवृत्ति की एक अतः .
(3) आनन्द-अहंकार विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता
(4) अस्मिता-अहंकार रहित अस्मिता विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता।
इसकी सबसे ऊंची अवस्था विवेकख्याति है, जिसमें चित्त का आत्माध्यास छूट जाता है और उसके द्वारा आत्मस्वरूप का उससे पृथ्करूप में साक्षात्कार होता है, किंतु योगदर्शन इसको वास्तविक आत्मस्थिति नहीं बतलाता है। यह भी चित्त ही की एक वृत्ति अथवा मन का ही एक विषय है किंतु इसका निरन्तर अभ्यास वास्तविक स्वरूपावास्थति में सहायक होता
___ उपर्युक्त विवेक ख्याति भी चित्त ही की एक उच्चतम सात्विक वृत्ति है। इसको 'नेति-नेति, (यह वास्तविक स्वरुपावस्थिति नहीं है, यह आत्मस्थिति नही है इत्यादि परम वैराग्य द्वारा हटाना मत का दूसरी प्रकार से रोकना है इसके भी हट जाने पर चित कोई भी वृत्ति न रहना अथवा मनका किसी विषय की ओर न जाना, सर्ववृत्ति-निरोध अन्सन्प्रज्ञात समाधि है । इसकी विस्तार पूर्वक व्याख्या योग दर्शन में यथास्थान में उपलब्ध है निरोप अपन स्वरूप का सर्वथा नाश हो जाना नहीं है, किंतु जड़-तत्व के अविवेकपूर्ण संयोग के चेतन तत्व से सर्वथा नाश हो जाना है। इस संयोग के न रहने पर द्रष्टा की शुद्ध परमात्मा स्वरूप में अवस्थिति होती है। इसको तीसरे सूत्र में बतलाया गया है। ‘स्वरूपास्थिति' इतना व्यापक शब्द है कि सोर सम्प्रदाय और मतान्तर वाले इसके अपने अभिमत अर्थ ले सकते हैं, किंतु योग क्रियात्मक रूप से अंतिम लक्षय में पहुंचाकर यर्थाथ स्वरूप अनुभव कराकर शब्दों के वाद-विवाद में नही पड़ता है। ‘स्वरूपावस्थिति' के अतिरिक्त भिन्न अवस्थाओं में यद्यपि द्रष्टा के स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन, नहीं होता है, तथापि जैसी चित्त की वृति सुख-दुख और मोहरूप होती है, वैसा ही