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________________ योग दर्शन के चार पाद हैं और 195 सूत्र हैं। समाधिपाद में 51 साधन पाट में २६. विभूतिपाद में 55 और केवल्यपाद में 34 । समाधिपाद-जिस प्रकार एक निपुण क्षेत्रज्ञ सर्व प्रथम सबसे अधिक उपजाऊ भूमि को तैयार करके उसमें श्रेष्ठतम बीज होता है, इसी प्रकार श्रीपतंजलि गहाराजने समाहित चित्तवाल सबसे उत्तम अधिकारियों के लिए सबसे प्रथम समाधिपाद को आरम्भ करके उसमें विस्तारपूर्वक योग के स्वरूप को वर्णन किया है। सारा समाधिपाद एक प्रकार से निम्न तीन सूत्रों की विस्तृत व्याख्या है। योगश्चितवृतिनिरोधः ॥ 2 ॥ 447 योगचित की वृत्तियों को रोकना है। तदाद्रष्टुः स्वरूपेडवस्थानम् ॥ 3 ॥ 448 तब (वृत्तियों के निरोध होने पर) द्रष्टा का स्वरूप : अवास्थति होता है। . वृत्तिसारूप्यमितरत्र ॥ 4 ॥ 449 दूसरी (स्वरुपावस्थिति से अतिरिक्त) अवस्था में द्रष्टा वृत्ति के समान रुपवाला प्रतीत होता है। चित्त, बुद्धि, मन अन्त: करण लगभग पर्यायवाचक समानार्थक शब्द है, जिनका भिन्न-भिन्न दर्शनकारों ने अपनी-अपनी परिभाषा में प्रयोग किया है। मन की चंचलता प्रसिद्ध है। सृष्टि के सारे कार्यों में मन की स्थिरता ही सफलता का कारण होती है सृष्टि के सारे महान् पुरुषों की अद्भुत शक्तियों में उनके मन की एकाला का रहस्य छिपा हुआ होता है। नैपोलियन के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह इतना एकाग्रचित था कि रणभूमि में भी शान्तिपूर्वक शयन कर सकता था, किन्तु, ये सब एकाग्रता के बाहय रूप हैं। योग के अन्तर्गत मन को दो प्रकार से रोकना है एक तो केवल एक विषय में लगातार इस प्रकार लगाये रखना कि दूसरा विचार न आने पावे, इसको एकाग्रता अथवा सम्प्रज्ञात ( 158)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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