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________________ यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जतानि जीवन्ति । यत्त्ररयन्त्यभिसं विशन्ति । तद् विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्म ॥428 जिससे ये भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जीते हैं और मरते है और मर कर जिसमें लीन होते हैं, उसकी जिज्ञासा कर, वह सत्य ब्रह्म है'। वेदान्त दर्शन का तीसरा सूत्र है 'शास्त्रयोनित्वात्'429 ब्रह्म 'शास्त्रप्रमाणक है'। ब्रह्म इन्द्रियों की पहुँच से परे है इसलिए वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं, अनुमान भी उसकी झलक मात्र देता है। पर शास्त्र उसका दिव्य स्वरूप दर्शाता है, जिससे अनुमान इधर ही रह जाता है अतएव कहा है। 'येन सूर्यस्तपति तेजसेद्ध: । नवेदविन्मनु ते तं बृहन्तम्'4.50 'जिस तेज से प्रदीप्त होकर सूर्य तपता है, उस महान् (प्रभु) को वह नहीं जानता जो वेद को नहीं जानता है।' वेदान्त दर्शन का चौथा सूत्र है 'तत्तु समन्वयात्'431 'वह ब्रह्म का शास्त्र प्रमाणक होना एक तात्पर्य से है।' सारे शास्त्र का एक तात्पर्य ब्रह्म के प्रतिपादन में है, अतएव कहा है सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति 432 'सारे वेद जिस पद का अभ्यास करते हैं।' इसलिए श्रुति का तात्पर्य एक ब्रह्म के प्रतिपादन में है, कहीं शुद्ध स्वरूप से, कहीं शबलस्वरूप अथवा उपलक्षण से। वेदान्त दर्शन के ये चारों सूत्र वेदान्त की चतुःसूत्री कहलाते हैं। इनमें सामान्य रूप से वेदान्त का विचार कर दिया है, विशेष रूप से आगे किया है। (151)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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