________________
के कथन को अर्थवाद कहते हैं। इन पाँच विषयों के होने पर भी वेद का तात्पर्य विधि वाक्यों में ही है। अन्य चारों विषय उनके केवल अङ्गभूत है तथा पुरूषों को अनुष्ठान के लिए उत्सुक बना कर विधि वाक्यों को ही सम्पन्न किया करते हैं। विधि चार प्रकार की होती है-कर्म का स्वरूप मात्र को बतलाने वाली विधि 'उत्पत्ति-विधि' है। अङ्ग तथा प्रधान अनुष्ठानों के सम्बन्ध बोधक विधि को 'विनियोग विधि', कर्म से उत्पन्न फल के स्वामित्व को कहने वाली विधि को ‘अधिकार विधी' तथा प्रयोग के प्राशुभाव (शीघ्रता) के बोधक विधि को 'प्रयोग विधि' कहते हैं। विहयर्थ के निर्णय करने में सहायक श्रुति, लिङ्ग, वाक्य प्रकरण, स्थान तथा समाख्या नामक षंट प्रमाण होते हैं। जैमिनि मुनि के मतानुसार यज्ञों से ही स्वर्ग अर्थात ब्रहम की प्राप्ति होती है । 'स्वर्ग कामो यजेत' स्वर्ग की कामना वाला यज्ञ करे । यज्ञ के विषय में श्रीमदभगवद्गीता में ऐसा वर्णन किया गया है
यज्ञार्थात्कर्मणाऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कैन्तेय मुक्तसङ्ग समाचार 1425 यज्ञ के लिए जो कर्म किये जाते हैं, उनके अतिरिक्त अन्य कमों से यह लोक बँधा हुआ है। तदर्थ अर्थात् यज्ञार्थ किये जाने वाले कर्म (भी) तू आसक्ति अथवा फलाशा छोड़ कर करता जा।
उत्तरमीमांसा:-उत्तरमीमांसा को ब्रह्मसूत्र, शारीरिक सूत्र, ब्रह्ममीमांसा तथा वेद का अन्तिम तात्पर्य बतलाने से वेदान्त दर्शन और वेदान्तमीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के चार सोपान है और प्रत्येक सोपान चार पदों में विभक्त है।
(1) पहले सोपान का नाम समन्वय है, क्योंकि इनमें वेदान्त वाक्यों का एक मुख्य तात्पर्य ब्रह्म में दिखाया गया है, क्योंकि इसमें सारे वेदान्तवाक्यों का एक मुख्य तात्पर्य ब्रह्म में दिखाया गया है। इसके पहले पाद में उन वाक्यों पर विचार है, जिनमें ब्रह्म का चिन्ह
(148)