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स्वयं रचा है। वेदों के कर्मकाण्ड-प्रतिपादक वाक्यों में जो विरोध प्रतीत होता है, केवल उसके वास्तविक अविरोध को दिखलाने के लिए पूर्व मीमांसा की और वेद के ज्ञानकाण्ड में समन्वय साधन और अविरोध की स्थापना के लिए उत्तर मीमांसा की रचना की गयी है। इस कारण इन दोनों दर्शनों में शब्द प्रमाण को ही प्रधानता दी गयी है। दोनों दार्शनिक लगभग समकालीन हुए हैं। इसलिए श्री मैमिनिका भी वही समय लेना चाहिये जो उत्तर मीमांसा के प्रकरण में श्री वेद व्यास जी महाराज के बतलाया जायगा।
पूर्व मीमांसा:-मीमांसा प्रथम सूत्र है 'अथातो धर्म जिज्ञासा' अर्थात् अव धर्म की जिज्ञासा करते हैं।
मीमांसा के अनुसार धर्म की व्याख्या वेदविहिन, शिष्टों से आचरण किये हुए कर्मों में अपना जीवन ढालना है। इसमें सब कर्मों को यज्ञों तथा महायज्ञों के अन्तर्गत कर दिया गया है। भगवान मनु ने भी ऐसा ही कहा है-महायज्ञैश्च यज्ञैश्र्च ब्राहीयं क्रियते तनुः' महायज्ञों तथा यज्ञों के द्वारा ब्राह्मण शरीर बनता है पूर्णिमा तथा अमावस्या में जो छोटी-छोटी इष्टियां की जाती हैं, इनका नाम यज्ञ अश्वमेघादि यज्ञों का नाम महायज्ञ है। (1) ब्रह्म यज्ञ-प्रात: और सांयकाल की संध्या तथा स्वाध्याय (2) देवयज्ञ-प्रात: तथा सायंकाल का हवन । (3) पितृयज्ञ-देव तथा पितरों की पूजा अर्थात् माता, पिता, गुरु आदि की सेवा तथा उनके प्रति श्रद्धा भक्ति । (4) बलिवैश्वदेव यज्ञ पकाये हुए अन्न में से अन्य प्राणियों के लिए निकालना (5) अतिथियज्ञ-घर पर आये हुए अतिथियों का सत्कार ।
वेद के पाँच प्रकार के विषय हैं-(1) विधि, (2) मन्त्र, (3) नामधेय, (4) निषेध और (5) अर्थवाद । स्वर्ग की कामना वाला यज्ञ करे' इस प्रकार के वाक्यों को ‘विधि' कहते हैं। अनुष्ठान के अर्थ-स्मारक वचनों को मन्त्र के नाम से पुकारते हैं। यज्ञों के नाम की 'नामधेय' संज्ञा है। अनुचित कार्य से विरत होने को 'निषेध' कहते हैं तथा किसी पदार्थ के सच्चे गुणों
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