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वस्तु का होता है। सबके जानने वाले को किससे जाना जा सकता है। यथा 'विज्ञातारमरे केन विजानीयात् ।' इससे सिद्ध होता है कि चेतनतत्व से भिन्न एक जडतत्व है। उसका यथार्थरूप समझाने के लिये अगले दो सूत्रो में उसको चौवीय अवान्तर भेदों में विभक्त कर दिखलाते
अष्टौ प्रकृतय: 13
पोडश विकारा:
(जड़तत्व के प्रथम दो भेद प्रकृति और विकृति हैं, उनमें से) आठ प्रकृतियाँ हैं-प्रधान अर्थात् मूल प्रकृति महत्तत्व, अहंकार और पाँच तन्मामात्राएँ अर्थात् शब्द-तन्मात्रा, स्पर्श-तन्मात्रा, रूप-तन्मात्रा, रसतन्मात्रा और गन्धतन्मान्त्रा; और सोलह विकृतियाँ हैं-पाँच स्थूलभूत आकाश, वायु अग्नि, जल और पृथ्वी, और ग्यारह इन्द्रियाँ, अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण और पाँच कर्मेन्दियाँ-वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा और ग्यारहवाँ मन ।
चेतनतत्व (पुरूष) पुरूष: पुरूष के अर्थों का स्पष्टीकरण-पचीसवाँ चेतन तत्व पुरुष है:-(1) जीव (2) हिरण्यगर्भ अर्थात् ईश्वर अपरब्रह्म और (3) परमात्मा अर्थात् परब्रह्म । अर्थात्
जन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत् प्रवृत्तेश्च।
पुरूपवहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाश्चैव ॥415
तथा
जन्मादिव्यवस्थात: पुरूषबहुत्वम् ।।
सांख्यदर्शन के अनुसार व्यष्टि अन्त:करणों के धर्मो अथवा स्थूल, सूक्ष्म और शरीरों की क्रियाओं के भद से इन व्यष्टि अन्तः करणों अथवा व्यष्टि शरीरों की अपेक्षा से जीव अर्थ पुरूष में बहुत्व दिखलाया है और (2) समष्टि अन्त: करण की अपेक्षा से समष्टिरूपेण ईश्वर अर्थ पुरूष में एकत्व इस प्रकार दिखलाया है-जैसे वृक्षों के समूह की वनरूप एक संज्ञा होती है
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