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कपिलमुनि प्रणीत तत्वसमास (प्राचीन सांख्य दर्शन की व्याख्या) तत्वमसि 12
संसार में प्रत्येक प्राणी की प्रबल इच्छा पायी जाती है कि 'मैं सुखी होऊँ' दुःखी कमी न होऊँ। किन्तु सुख की प्राप्ति बिना दूःख की निवृति असम्भव है; क्योंकि दुःख की निवृत्ति का नाम ही सुख है इसलिये सुख के अभिलाषियों को दुःख की जड़ काट देनी चाहिये । दुःख की जड़ अज्ञान है। जितना कम अज्ञान होगा, उतना ही कम दुःख होगा। ज्ञान और अज्ञान तत्त्वों के सम्बन्ध से हैं। जिस तत्व का अज्ञान होगा, उसी से दुःख होगा। जिस वस्तु का जितना यथार्थज्ञान होता जायगा, उससे उतनी ही दुःखनिवृत्तिरूप सुख की प्राप्ति होती जायेगी। जब सारे तत्वों का ज्ञान हो जायगा तो सारे तत्वों से अभरूप सुख का लाभ होगा। इसलिये सारे तत्वों का यथार्थ ज्ञान ही दुःखों की जड़ का काटना है अत: सारे तत्वों का संक्षेप से विचार आरम्भ किया जाता है।
जड़तत्व:-दु:ख--निवृत्ति की इच्छा और प्रयत्न करने वाले का दुःख स्वाभाविक धर्म नहीं हो सकता, क्यों कि यदि ऐसा होता तो वह उसकी निवृत्तिका यत्न ही नहीं करता। इससे सिद्ध होता है कि दुःख निवृत्ति की इच्छा करने वाले से भिन्न उससे विपरीत धर्म वाला कोई दूसरा तत्व है, जिसका स्वाभाविक धर्म दुःख और जडता है। यदि कहा जाय कि दुःखनिवृत्ति की इच्छा और प्रयत्न करने वाला ही एक अकेला चेतनतत्व है। उससे भिन्न कोई दूसरा तत्व नहीं है। दुःख की प्रतिति अविद्या, अज्ञान, भ्रम, अथवा माया से होती है तो ये अविद्या, अज्ञान भ्रम और माया भी स्वयं किसी भिन्न तत्व के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं जिसके ये स्वाभाविक धर्म हैं। यदि यह कहाँ कहा जाय कि यह चेतन तत्व से अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, तो यह स्वाभाविक धर्म होने से दुःख की कभी भी निवृत्ति नहीं हो सकेगी और उसके लिए किसी भी प्रकार का यत्न करना व्यर्थ होगा। यदि ऐसा माना जाय कि उस चेतन तत्व को ठीक-ठीक न जानने से यह भ्रम इत्यादि हो रहा है। यथार्थ रूप जानने से सब भ्रम और दुःखों की निवृति हो जाती है, तो इससे भी किसी भिन्न तत्व की सिद्धि होती है; क्यों कि जानना किसी दूसरी
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