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और (3) परब्रह्म के शुद्ध निविशेष स्वरूप पुरूष अर्थ में आत्माओं के अन्तःकरणो अथवा स्थूल, सूक्षम और कारण शरीर से परे केवली अवस्था में एक जाति के सदृश एकत्व दिखलाया है ।
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वास्तव में ईश्वर के अर्थ में पुरूष का स्वरूप इस प्रकार है कि व्यष्टिसत्व चित्तों में सत्व की विशुद्धता, सर्वज्ञता का बीज तथा धर्म ज्ञान, वैराग्य ऐश्वर्यादि सतिशय हैं । जहाँ पर ये पराकाष्ठा को पहुँचकर निरतिशयतर को प्राप्त होते हैं, वह विशुद्ध सत्वमय चित्त समपटचित है। इसकी अपेक्षा से चेतनातत्व की संज्ञा ईश्वर, शबल है। इसकी अपेक्षा से चेतना तत्व की संज्ञा ईश्वर, शबल ब्रह्म और अपर ब्रह्म है । उसमें एकत्व है और व्यष्टिपिण्ड़ों अथवा चित्तों और समष्टि ब्रह्माण्ड अथवा विशुद्ध सत्वमय चित्त से परे जो चेतन तत्व का अपना शुद्ध केवली स्वरूप है ऐसे अर्थ वाले पुरूष की संज्ञा परमात्मा, निर्गुण ब्रह्म, शुद्ध ब्रह्म तथा परब्रह्म है सांख्य ने आत्मा के शुद्ध स्वरूप को सर्वव्यापक, निर्गुण, गुणातीत, निष्क्रिय, निर्विकार अपरिणाम कूटस्थ नित्य माना है । हो सांख्य ग्रन्थ के इन टीकाकारों को भी अभिमत है। इसके अनुसार आत्मा में जाति नहीं रह सकती, क्योंकि जो विभु है उसमें जाति नहीं रहती - जैसे आकाश । इसके अतिरिक्त एक जाति में जो व्यक्तियाँ होती हैं, उन व्यक्तियों में परस्पर भेद अथवा विलक्षणता में के निमित्त कारण रूप, अवयवों के की बनावट गुण, कर्म, देश, काल दिशा आदि होते हैं। उपर्युक्त बतलाये हुए आत्मा के लक्षण में इनमें से किसी भी निमित्त की सम्भावना नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त जब त्रिगुणात्मक जड़, अग्नि का वायु आदि के शुद्ध स्वरूप में एकत्व है तो गुणातीत आत्मा के शुद्ध ज्ञानस्वरूप में बहुत्व कैसे सम्भव हो सकता है ? कपिल जैसे आदि विद्वान् और सांख्य जैसी विशाल प्राचीन दर्शन के साथ पुरूष अर्थ परब्रह्म के इस प्रकार के लक्षण का कोई मेल नहीं बैठ सकता। बहुत सम्मभव है कि नवीन वेदान्तियों के कटाक्ष के विरोध में नवीन सांख्यादियों ने भी अद्वैत के खण्डन और द्वैत के सर्मथन में इस प्रकार की युक्तियों के प्रयोग करने में कोई दोष न समझा हो । फिर भी प्राचीन सांख्य और इन नवीन सांख्यवादियों में आत्मा का शुद्ध केवली स्वरूप एक प्रकार का है। ध्येय वस्तु के
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