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________________ हैं, उन्हें दान देने से क्या फायदा ? वे जल में शिला की भाँति किसी को तारने में कहाँ तक समर्थ हो सकते हैं 2375 वैष्णव धर्मः – वैष्णव धर्म वैदिक युग से विकसित होता हुआ गुप्त युग में पर्याप्त प्रसिद्ध हो गया था । प्रारम्भ में इसका नाम एकान्तिक धर्म था । जब यह साम्प्रदायिक बन गया तो भागवत या पाँचरात्र धर्म कहलाने लगा। धीरे धीरे वासुदेवोपासना में नारायण और विष्णु की उपासना घुल-मिल गयी। विष्णु ने देवताओं में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया था । सम्भवतः आठवीं शताब्दी में शैव सम्प्रदायों का आधिक्य अथवा प्रभाव होने के कारण वैष्णव धर्म की स्थिति में कुछ कभी आयी हो। इस समय वैष्णव धर्म का वही स्वरूप प्रचिलित रहा जिसमें भक्ति की प्रधानता थी । शंकर के अद्धैवतवाद एवं जगन्मिथ्यात्व के सिद्धान्त ने वैष्णव धर्म के स्वरूप को परिवर्तन की ओर प्रेरित किया । 376 कुवलयमाला में जितने शैवधर्म के सन्दर्भ हैं, उतने वैष्णव धर्म के नहीं। स्वयं विष्णु का ही उल्लेख ग्रन्थकार ने नही किया है। संभवतः इस समय उनके बुद्ध नारायण आदि अवतार अधिक प्रचिलित रहे होंगे । तापसः समराइच्च कहा के अनुसार ध्यान योग आदि का आचरण करने वाले दयालु स्वाभाव के तपोपवन वासी ऋपि धन्य समझे जाते थे 1 377 तत्कालीन तपाचरण करने वाले वैदिक साधु संन्यासियो की दो श्रेणियाँ थीं । प्रथम साधारण तापस तथा दूसरे कुलपति । उत्तम तिथि मुहुर्त में कुलपति द्वारा तपस्वियों को आश्रम में दीक्षित किया जाता था । दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ये तपस्वी कुलपति की सेवा करते हुए तप, व्रत, धर्म आदि का आचरण करते थे।378 अत: वे वनवासी (आश्रम में कुल - पति की सेवा करते हुए तपाचरण करने वाले । तापस कहे जाते थे । 379 उन तपोवन का सेवन करने वालो में बालक मुनि 380 तथा मुनि कुमार 381 का भी उल्लेख मिलता है। महाभाष्य में वानप्रस्थ के लिए तपस्वी शब्द का प्रयोग किया गया है जिनका लक्ष्य ही तपाचरण 382 करना था । काशिकाकार के अनुसार अस्थिचमवाशिष्ट तापस स्वर्ग प्राप्ति के लिए तप करता है । 383 तप, श्रद्धा, आदि जीवन के अभिन्न अंग थे तथा ( 137 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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