SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जानकारी मिलती है। उद्योतनसूरि ने इस ग्रन्थ में राजा दृढवर्मन की शिक्षा के समय जिन 33 आचार्यो के मतों का उल्लेख किया है उनमें शैव, वैष्णव, पौराणिक आजीवक आदि धर्मो के विभिन्न सम्प्रदायों का समावेश है। धार्मिक आचार्य अपने अपने मत का परिचय देते हैं। राजा उनके हिताहित का विचार करता है । इस सन्दर्भ में शैव धर्म के निम्नांकित सम्प्रदायों का वर्णन उपलब्ध होता है । कापालिक:: - धर्म में स्थित (साधु) जो अपना एवं अपनी पत्नी का शरीर समर्पित करता है, वह साधु तैरते हुए तुबे के समान उस व्यक्ति को उस भव-समुद्र से पारकर देता है | 365 इस मत के आचार्य का सम्बन्ध उस समय के प्रचिलित साधुओं के धर्म से प्रतीत होता है । कापालिक सम्प्रदाय के सम्बन्ध में साहित्यक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों से जो जानकारी प्राप्त होती है, उससे स्पस्ट है कि वे शैव सम्प्रदाय की शाखा के साधु थे। कापालिकों का उल्लेख ललितविस्तर 366 भवभूति के मालती माधव, 367 समराइच्च कहा 368, यशास्तिलक, 369 यामुनाचार्य के आगम- प्रमाण आदि ग्रन्थों में मिलता है, जिससे उनकी धार्मिक क्रियाओं पर प्रकाश पड़ता है 137) उद्योतन सूरि ने कापालिकों का दो बार उल्लेख किया है । मित्रद्रोह का पाप कापालिक व्रत धारण से दूर हो सकता है। 371 तथा महामसान में सुन्दरी अपने पति के शवकी रक्षा करती हुई कापालिक बालिका सदृश दिखाई पड़ती थी । 372 इससे स्पष्ट है कि आठवीं सदी में कापालिक मत के साधु श्मशान में स्त्रियों के साथ शव साधना से सम्बन्धि तांत्रिक क्रियाएँ करते थे । कापालिकों की धार्मिक क्रियाओं में सहवास पर कोई निषेध नहीं था। कापालिक साधु भगासनस्थ होकर आत्मा का ध्यान करता था। 373 10 वीं सदी तक ये त्रिकमत को मानने लगे थे, जिसके अनुसार बायी ओर स्त्री को बैठाकर स्वयं शिव एवं पार्वती के समान आचरण करना विहित था 37 मद्य मांस एवं स्त्रियों के सहवास के कारण ही सोमदेव ने जैन साधुओं को कापालिकों का सम्पर्क होने पर मन्त्र- स्नान करने को कहा है । सम्भवतः इसीलिए इन कापालिको को भोगी होने के कारण मुनि नहीं माना जाता था एवँ जो मुनि नहीं ( 136 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy