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जैन धर्म 'सम्यक् दर्शन' (आस्था), 'सम्यक ज्ञान' सम्यक चरित्र को त्रिरत्न अर्थात् जीवन के तीन बहुमूल्य सिद्धान्त बताता है 363 इनमें से पहला सिद्धान्त सम्यक् दर्शन को दिया गया है, क्यों कि यदि आस्थाएँ भ्रान्त हैं तो सम्यक् चरित्र का अधिकांश मूल्य सामाप्त हो जाता है। सम्यक दर्शन जैनशास्त्रों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास है और इसका अभिप्राय विशेष रूप से यह है कि संशय, जो आध्यात्मिक विकास में बाधक होता है, बिलकुल दूर हो जाय । सम्यक् ज्ञान जैन-धर्म और दर्शन के सिद्धान्तों का ज्ञान है । सम्यक् चरित्र जैन साहाना का सबसे महत्वपूर्ण अंग है क्योंकि सम्यक चरित्र से से ही मनुष्य 'कर्म' से मुक्त हो सकता है और जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसके समान्य स्वरूप को बताने के लिए प्रसिद्ध पाँच व्रतों का उल्लेख कर देना प्रर्याप्त है। श्रमण के लिए ये पाँच व्रत इस प्रकार बताये गए है: (1) किसी प्राणी को हानि न पहुंचाना (अहिंसा) (2) झूठ न बोलना (सत्य) (3) चोरी न करना (अस्तेय) (4) ब्रहाचर्य तथा (5) संसार का त्याग (अपरिग्रह ) । गृहस्य के लिए पहले तीन व्रत तो यही हैं, लेकिन अन्तिम दो के स्थान पर क्रमशः संयम और सन्तोष, अर्थात, अपनी अवश्यकताओं को कठोरता के साथ सीमित रखना, निर्धारित किये गये हैं । जैन को जिन विभिन्न सद्गुणों का अभ्यास करने के लिए कहा गया है, उसमें अहिंसा का सिद्धान्त निस्सन्देह भारत में प्राचीन है,364 किन्तु जिस तरीके से इसे सम्पूर्ण आचार-संहिता में व्याप्त कर दिया गया है वह जैन धर्म की विशेषता है ।
शैव धर्मः आठवीं शताब्दी में शैव धर्म पर्याप्त विकसित हो चुका था । उसके स्वरूप में पौराणिक तत्वों का समावेश हो गया था। रूद्र में शिव के सम्बन्धों में घनिष्ठता थी । लिंग पूजा का सूत्रपात हो चुका था । शैव धर्म अब अनेक सम्प्रदायों में विभक्त था । शैव कापालिक, कालामुख, कौल, आदि उनमें प्रमुख थे शिव के विभिन्न रूप- महाकाल शशिशेखर, हर, शंकर, त्रिनेत्र, अर्द्धनारीश्वर, योगीराज आदि तत्कालीन समाज में प्रसिद्ध थे । शैव परिवार में रूद्र, स्कन्द षड़मुख, गजेन्द्र, विनायक गणाधिप, वीरभद्र आदि देवता कात्यानी कोट्टजा, दुर्गा अम्बा आदि देवियाँ, भूत पिशाच आदि गण सम्मिलित थे, जिनके सम्बन्ध में कुवलयमाला से पर्याप्त
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