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________________ परिभाषा देने में कोई साग्रह कथन करने से बचना चाहिए। इस सिद्धान्त का ठीक-ठीक अर्थ समझने के लिए उन परिस्थितियों को जान लेना जरूरी है, जिनमें इसका प्रतिपादन किया गया था। उस काल में एक ओर तो उपनिषदों का यह मत प्रचलित था कि सत् ही तत्व है और दूसरी ओर अस्वीकृति के साथ यह मत भी था कि असत् ही तत्व है।361 जैन दर्शन के अनुसार ये दोनों ही मत अंशत: सही है। जैनों की दृष्टि में उपनिषदों में ही कहीं-कहीं पाए जाने वाले वे दो अन्य मत भी इतने ही एकान्तिक हैं जिनके अनुसार सत् और असत् होना चाहिए या दोनों में से कोई भी नहीं ।62 इस प्रकार जैनों का विलक्षण सूक्ष्मता-प्रेम अस्ति न नास्ति', के दो प्रसिद्ध विकल्पों के साथ 'अस्ति नास्ति' और 'न अस्ति न नास्ति', ये दो और विकल्प जोड़ देता है। जैनों के विचार से तत्व का स्वरूप इतना जटिल है कि उसके बारे में इन मतों में से प्रत्येक अंशत: तो सही है, लेकिन पूर्णत: सही कोई भी नहीं है। उसके सही स्वरूप का सीधे और एक वाक्य में वर्णन करने के सारे प्रयत्न असफल रहते हैं फिर भी अंशत: सही कथनों की एक श्रृंखला के द्वारा, किसी एक से अपने को एकान्त रूप में न बाँधते हुए, हमारा उसे बता सकना असम्भव नहीं है। इसलिए जैन उसके स्वरूप का सात चरणों में कथन करते हैं, जिसे 'सप्तभंगी' कहा गया है। यह इस प्रकार है: (1) शायद है (स्यात् अस्ति) (2) शायद नहीं है (स्यात् नास्ति) (3) शायद है भी और नहीं भी (स्यात अस्ति नास्ति) (4) शायद अनिर्वचनीय है (स्यात अवक्तव्यः) । (5) शायद है और अनिर्वचनीय है (स्यात अस्ति च अवक्तव्यः) (6) शायद नहीं है और अनिर्वचनीय है (स्यात नास्ति च अववक्तव्य) (7) शायद है, नहीं है, और अनिर्वचनीय है (स्यात अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यः) । ( 134)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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