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वाले हैं। गन्ध, रस इत्यादि गुणा का अणुओं में विकास हो जाने पर उनमें अन्तर आ जाते हैं, यद्यपि स्वतः उनमें कोई अन्तर नहीं होता। इस प्रकार निभेदित अणुओं से ही शेष भौतिक जगत् की उत्पत्ति होती है। अतः पुद्गल के दो रूप होते हैं- एक सरल या आणविक होता है। और दूसरा यौगिक हैं। 358 उपनिषदों को पृथ्वी इत्यादि तत्वों में पहुँचकर नहीं रोक देता । विश्लेषण की प्रक्रिया को और पीछे वहाँ तक पहुँचा देता है, जहाँ गुणात्मक विभेदन अभी शुरू नहीं हुआ होता परन्तु उपनिषद् अन्तिम अवस्था में ब्रहा को एकमात्र तत्व मानते हैं जबकि जैन-दर्शन उसमें अणुओं की अनन्त संख्या मानता है । न केवल गुणों की दृष्टि से पुद्गल अनियत है, बल्कि परिमाण की दृष्टि से भी उसे अनियत माना गया है। उसकी मात्रा में वृद्धि या ह्रास हुए बिना उसके आयतन में वृद्धि या ह्रास हो सकता है । इस स्थिति को यह मानकर सम्भव बताया गया है कि जब पुद्गल सूक्षम अवस्था में होता है तब उसके कणों की कोई भी संख्या एक स्थूल अणु की जगह में समा सकती है। इस सूक्ष्म अवस्था में रहने वाला पुद्गल ही कर्म है, जो जीव के अन्दर प्रविष्ट होकर संसार का कारण बनता है । 359
स्याद्वाद: जैन दर्शन के स्याद्वाद नामक सर्वाधिक विलक्षण सिद्धान्त- 360 की धारणा है। कि सत् का स्वरूप, अत्यधिक अनियत है । 'स्यात्' शब्द संस्कृत की 'अस्' धातु ('होना) का विधिलिङ् का एक रूप है। इसका अर्थ है 'हो सकता है' 'शायद'। इसलिए स्यादवाद 'शायद' का सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त का यह तात्पर्य है वस्तु को अनेक दृष्टिकोणों से देखा जा सकता हैजा सकता है और प्रत्येक दृष्टिकोण से एक भिन्न निष्कर्ष प्राप्त होता है (अनेकान्त) वस्तु का स्वरूप पूरी तरह से इनमें से किसी के द्वारा भी व्यक्त नही होता, क्योंकि उसमें जो वैविध्य मूर्तिमान् होता है उसपर सभी विधेय लागू हो सकते हैं । अतः प्रत्येक कथन असल में सोपाधिक मात्र होता है। एकान्त विधान और एकान्त निषेध दोनो गलत हैं । जैन एक कथा के द्वारा इस बात को समझाते हैं, जिसके अनुसार अनेक अन्धे एक हाथी को छूकर उसकी आकृति के विषय में तरह-तरह की बातें हैं जबकि असल में प्रत्येक हाथी के एक अलग ही भाग को छू पाता है। यह सिद्धान्त बताता है कि हमें अत्यधिक सतर्क रहना चाहिए और वस्तु के स्वरूप की
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