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ही आचार्यों को आठवीं शताब्दी होने के कारण, इस प्रश्न पर विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है। हरिभद्रसूरि ने अनेकान्तवाद शब्द का प्रयोग किया है। इसके पूर्व भी इस शब्द के प्रयुक्त होने की सम्भावना है।
जैन दर्शन में सम्पूर्ण जगत का विभाजन दो नित्य द्रव्यों में किया गया है। इन दो द्रव्यों को जीव और अजीव कहा गया है। जीव चेतन द्रव्य है और अजीव अचेतन 1356 एक आत्मा और दूसरा अनात्मा। दूसरे में पुद्-गल के अलावा देश और काल भी आ जाते हैं। इन शब्दों से स्पष्टत: जैन-धर्म का वास्तववादी और सापेक्षवादी दृष्टिकोण प्रकट होता है । जैन-धर्म के अनुसार जितना निश्चित ज्ञाता अर्थात् जानने वाले का अस्तित्व है उतना ही निश्चित ज्ञेय अर्थात् ज्ञान की वस्तु का भी है। इनमें से अजीव का अपना विशिष्ट है; लेकिन उस स्वरूप को समुचित रूप से तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक जीव से उसका भेद न मालूम हो जाय। इसीलिए उसे 'अजीव' अर्थात् जीव का व्याधाती कहा गया है। जीव का वर्ग अधिक महत्व का है। इसलिए इसका स्वतंत्र रूप से अभिधान किया है। इसे भी भली-भाँति समझने के लिए इसका अजीव भेद जानना आवश्यक है।
अणु सिद्धान्त–'ऐटम' का संस्कृत पर्याय ‘अणु' उपनिषदों में पाया जाता है। भारतीय दर्शन के शेष सम्प्रदायों में इसे एक से अधिक मानते हैं और जैन-दर्शन में शायद इसका रूप प्राचीनतम है । उसके अनुसार, अणु सभी एक प्रकार के होते हैं, लेकिन इसके बाबजूद वे अनन्त प्रकार की वस्तुओं को उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए जैन-दर्शन में पुद्गल के कुछ अभियोज्य लक्षण है; किन्तु उनके द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्दर गुणात्मक विभेदन की प्रक्रिया से वह कोई भी रूप ग्रहण कर सकता है। इस मत के अनुसार तत्वों का उतपरिवर्तन बिलकुल सम्भव है वह रसायनज्ञ का स्वप्नमात्र नहीं है। जैन दर्शन ने पृथ्वी, जल तेजस् और वायु का भेद वैशेषिक इत्यादि कुछ हिन्दू-विचारकों की तरह मौलिक और नित्य नहीं माना है, बल्कि व्युत्पन्न और गौण माना है |357 उसके अनुसार ये तथाकथित तत्व भी विभाज्य और यौगिक रचना
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