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परिणाम शुभ दायक माना जाता था।46 इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर उल्लेख है कि अपने किये गये पाप कृत्यों के ही परिणाम स्वरूप लोग दु:ख के भागी बनते हैं और इन पाप पूर्ण कृत्यों के नष्ट हो जाने पर ही सुख की उपलब्धि कर सकते हैं।347 कर्मवाद की भावना अत्यन्त काल से ही चली आ रही है।48 रामायण में भी कर्म फल का वर्णन प्राप्त होता है। 49 जिस तरह का कर्म होगा परिणाम भी उसी तरह का भोगना पड़ेगा। यहाँ बताया गया है कि कौसल्या को पुत्र वियोग सम्भवतः इसलिए हुआ होगा कि उन्होंने पूर्व जन्म में स्त्रियों का पुत्रों से विद्रोह कराया हेगा। महाभारत में भी बताया गया है कि जो दोनों लोकों (यह लोक तथा परलोक) को प्राप्त करने का आकांक्षी हो उसे धर्माचरण में मन लगाना चाहिए।350
अष्टाध्यायी से भी पता चलता है कि सुकम से पुण्य फी मिलता है ।351 अच्छे बुरे कर्म करने वालों के लिए विशेष शब्द थे यथा-पुण्यकृत, सुकर्मकृत, पापकृत आदि ।352 मार्कण्डेय पुराण में उल्लिखित है की कर्म की शक्ति मानव की सबसे बड़ी शक्ति है। यही उसकी सबसे बड़ी विजय है तथा इसीलिए तो स्वर्ग के देवता भी पृथ्वी पर मनुष्य देह में जन्म लेना चाहते हैं ।353 आगे यह भी कहा गया है कि जिन मनुष्यों का चित्त, इंद्रिय और आत्मा अपने वश में हैं एवं जो कर्म करने में उद्यत हैं उनके लिए स्वर्ग में कुछ या पृथ्वी में कुछ भी ऐसा नहीं है जो ज्ञान
और कर्म की उपलब्धि से बाहर हो, जिसे वे चाहें तो न जान सकें या न पा सके अथवा न पहुँच सकें 354
अनेकान्तवादी जैन दर्शन:-जैन कथा साहित्य में वर्णन मिलता है कि छात्रों को जीव, अजीव आदि पदार्थों में द्रव्य-स्थित पर्याय को मानने वाले, नय का निरूपण करने वाले, नित्य, अनित्य को अपेक्षाकृत मानने वाले अनेकान्त वाद को पढ़ाया जाता था |355 जैन दर्शन के लिए उस समय अनेकान्तवाद शब्द प्रयुक्त होता था, जिसमें सप्त पदार्थ निरूपण, स्याद्वादनय, जगत् की नित्यता-अनित्यता आदि पर विचार जैसे सिद्धान्त सम्मिलित थे। प्रस्तुत प्रसंग में यह विचारणीय है कि 'अनेकान्तवाद' शब्द कब से इस दर्शन में प्रयुक्त हुआ तथा आचार्य अकलंक का इसके साथ क्या सम्बन्ध था, जिसके सम्बन्ध में उद्योतन ने कोई संकेत नहीं दिया है। दोनों
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