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अर्थात् पुण्यकर्म, (2) कृष्ण अर्थात् पाप कर्म और (3) शुक्ल कृष्ण अर्थात पुण्य और पाप मिले हुए हैं।
भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि कर्म किमकर्मेति कवयोऽवयत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रक्षयामि यज्ञात्वा मोक्ष्यतेऽशुभात् कर्म क्या है, अकर्म क्या है इस प्रकार निर्णय करने में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जते हैं। वह कर्म तत्व तुम को भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर अशुभसे अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त हो जाआगे।
कर्मणो ध्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणोगति: ।339 कर्मको भी जानना चाहिये और अकर्म को (स्वरूप भी जानना चाहिये, तथा विकर्म को (स्वरूप भी) जानना चाहिये, क्योंकि कर्म की गति गहन है।
समराइच्च कहा 42 के अनुसार अशुभ कर्म परिणाम से शीतल जल भी अग्नि का रूप ले लेता है, चन्द्रमा की धवलता अंधकार रूप में बदल जाती है, मित्र शत्रु के रूप में परिणत हो जाता है और अर्थ की बात अनर्थ के रूप में परिवर्तित हो जाती है। पूर्व जन्मकृत कर्म, भावी जन्म में प्रारब्ध का रूप ग्रहण कर प्रभावशाली हो जाते हैं, कोई भी मनुष्य शुभ और अशुभ कर्म फल से बच नहीं सकता41 वासुदेव हिण्डी के अनुसार यदि मनुष्य का आचरण शुद्ध है तो उसकी जीवात्मा स्वर्ग जाती है342 अत: प्रमाद चेष्टा से युक्त कर्म उभय लोक विरुद्ध माना जाता था।43 जहाँ चेष्टित कर्म उभयलोक विरद्ध था वहीं अप्रमाद चेष्टित कर्म के आचरण का परिणाम शुभ माना जाता था। सुख एवं आनन्द हेतु शुभ कार्य से विष भी अमृत हो जाता है, अयश भी सुयश में परिणत हो जाता है एवं दुर्वचन भी सुवचन का रूप ले लेता है।344 सुकृत से ही अधीन उपभोग एवं परिभोग रूपी सुख समझे जाते थे ।345 भगवती सूत्र में धार्मिक कृत्यों एवं विचारों से युक्त कर्म को सत्कर्म बताया गया है जिसका
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