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भोजन पर नियंत्रण रखना तपस्या के लिए एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता था ।34 तपस्वीजनों की तपश्चर्या तथा उनके रहन सहन का उल्लेख धर्म सूत्रों तथा स्मृतियों में किया गया है।
ये दस प्रकार के यतिधर्म पालन में निपुण एवं दिव्य ज्ञान युक्त होते थे। 385 वे आश्रम में रहने वाले सभी तपस्वियों के आचार्य एवं गुरू होते थे। 380 अन्य तपस्वियों से लेकर साधारण गृहस्थ तक उन्हें बन्दना-पूजा आदि के साथ सम्मान प्रदान करते थे ।387 ऐसे तपस्वियों को कुलपति ऋषि अथवा महर्षि 388 कहा जाता था, जिनकी वाणी अमोध समझी जाती थी ।89 तपस्वी जन सम्पूर्ण प्राणी वर्ग से जननी के सदृश व्यवहार करते थे। 390 समराइच्चकहा में ऋषि को (आश्रम के आचार्य को) ही कुलपति कहा गया है। कुलपति का उल्लेख रघुवंश 391 तथा उत्तर रामचरित 392 में भी किया गया है। वाणभट्ट ने कादम्बरी में महामुनि अगस्त 193 तथा शरीर में भस्म लागाये एवं मस्तक पर त्रिपुण्ड लगाए महर्षि जावालि 394 का उल्लेख किया है जो अपने आश्रम में रहते हुए अन्य मुनिजनों से सेवित तथा धर्मपालन में निपुण समझे जाते थे। वशिष्ठ धर्म सूत्र में कहा गया है कि मुनिजन सबको अभय प्रदान करते चलते हैं, इसलिए उसे किसी से भय नहीं होता। 395
वैदिक धर्माचरण करने वाले तपस्वियों की भाँति कुलपति के आश्रम में नारी-तापसी भी होती थीं। वे तापसी पुत्रजीवक माला गले में धारण करती, वल्कल वस्त्र पहनती तथा हाथ में कमण्डल लिये रहती थीं।396 वे तापसी तपाचरण से कृशगात कन्दमूल-फल आदि खाकर अपनी वृत्ति चलाती थीं397 वे कुलपति की आज्ञानुसार आचरण करती तथा उनकी वन्दना पूजा करती हुई तप-संयम आदि का आचारण करती थीं। समराइच्च कहा के इन उल्लेखों का समर्थन वैदिक पंरपरा के ग्रन्थो से भी होता है। पतंजलि ने शंकरा नाम की परिब्राजिका का उल्लेख करते हुए कहा है कि कुणखाडव उसे शंकरा कहते हैं। कुछ लोग बिना गृहस्था श्रम में प्रविष्ट हुए सीधे बैखानस ब्रत ले लेते थे। अपस्तम्ब धर्म सूत्र में इस प्रकार का विधान है।399 इसीलिए अभिज्ञान शाकुन्तल में दुष्यन्त शकुन्तला के विषय में जिज्ञासा करते है कि क्या वह
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