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तथा असंक्लिष्ट चिन्तवाली एवं स्थानांग, समवायांग की ज्ञात्री होने पर प्रवर्तिनी के पद पर प्रतिष्ठित की जा सकती थीं 139
गच्छ परिग्रहः-कुवलयमाला के अनुसार जैन साधुओं में गच्छ परिग्रह वे आचार्य कहलाते थे, जिनके साथ अन्य शिष्य भी भ्रमण करते थे। शिष्यों का समुदाय (गच्छ) जिनका परिग्रह था। नये साधुओं को दीक्षित करने का अधिकार इन आचार्यों को ही था। जो साधु अकेले भ्रमण करते थे उन्हें चारण-श्रमण कहा जाता था। इन्हें किसी व्यक्ति को दीक्षा देने का अधिकार नहीं था।140 जो साधु अकेले घूमते थे वे दीक्षित व्यक्ति की प्रारम्भिक आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाते होंगे। इसीलिए चारण-श्रमण दीक्षा देने के अधिकारी नहीं माने गए। वैराग्य को प्राप्त विद्याधर श्रमण धर्म में प्रवजित हो चारण-श्रमण बन जाते थे, जिन्हें गगनांगण में विचरण करने की विद्या सिद्ध हो जाती थी।141 कुवलयमाला में चारण-श्रमण का दो बार उल्लेख हुआ है ।142
देवी-देवता:-वासुदेव हिण्डी में चार प्रकार के देवताओं का वर्णन है-विमानीय, नक्षत्रिय, भवनवासी वनचर। ये सभी देवता तीर्थंकरों के समवसरन पर एकत्रित होते थे।143 देवताओं
और अर्ध देवताओं जैसे किन्नर, किं पुरूष, भूय, यक्ष, राक्षस और महोरग के ऊपर इन्द्र को बतलाया गया है ।144 वासुदेव हिण्डी में श्री, सरस्वती देवियों का उल्लेख है दिशाओं की देवी को दिसकुमारी कहा गया है।
कुवलयमाला कहा में कुछ ऐसे देवताओं का भी उल्लेख है जिन्हें जैन परम्परा में व्यन्तर देवता कहा जाता है। पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरूष, महोरग और गन्धर्व ये आठ देव व्यन्तर कहलाते हैं। इनकी पूजा के लिए प्रत्येक के अलग-अलग चैत्यवृक्ष थे। पिशाच का कदम्ब, यक्ष का वट, भूत का तुलसी, राक्षस का कांडक, किन्नर का अशोक, किंपुरूष का चम्पक, महोरग का नाग और गन्धर्व का तेन्दुक 1145 उद्योतन सूरि ने इन आठों देवताओं का
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