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धर्म की प्रतिष्ठा इनसे ही हुई थी, परन्तु कदम्ब नरेशों के एक लेख से मालुम होता है कि ईसा की 4-5 वी शताब्दी में जैन संघ के वहाँ दो विशाल सम्प्रदाय-श्वेताम्बर महाश्रमण संघ और निर्गन्थ महाश्रमण संघ का अस्तित्व था। इसी इस वंश के कई लेखों में जैनों के यापनीय और कूर्चक नामक संघों का उल्लेख मिलता है जो कि एक प्रकार से दोनों से भिन्न थे।
श्राविका:-समराइच्चकहा के विवरणों से जानकारी प्राप्त होती है कि जैन धर्मावलम्बयों में पुरूषों की ही भाँति स्त्रियों में भी श्राविका या श्रावणोंपासिका (साध्वी) अणुव्रताचरण का पालन करती हुई श्रमणियों की उपासना व बंदना करती थीं।132 ये श्राविकायें गृहस्थाश्रम में रहकर श्रावकों का सा आचरण करती थीं।133
श्रमणी:-जैन परस्परा में जहाँ श्राविकायें श्रावकों की भाँत आचरण करती थीं, वहीं श्रमणी भी श्रमणों का सा आचरण करती थीं। समराइच्चकहा से पता चलता है कि नारी वर्ग भी माता-पिता अथवा पति की आज्ञा लेकर जैन धर्माचरण के लिए प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं ।134 एक विद्याधर श्रमणी ने अनेक साध्वी स्त्रियों तथा पुरूषों को दीक्षित किया था ।135
गणिनी:-श्रेष्ठ श्रमणियों को गणिनी कहा जाता था तथा उनसे धर्म कथा का श्रमण कर पुरूष एवं स्त्री वर्ग के लोग शिक्षित एवं प्रव्रजित होते थे।136 (धर्म से ही शाश्वत शिव सौरव्य की प्राप्ति संभव है) इस प्रकार की धर्म कथा सुनकर लोगों को जैन धर्माचरण के लिए प्रोत्साहित करती थीं ।137
जैन समूह भी गणिनी को सम्मान एवं बंदना द्वारा नमस्कार पूर्वक अणुव्रत गुणव्रत और शिक्षाव्रत को ग्रहण कर श्रमणत्व का आचरण करता था ।138 गणधर की ही भाँति साध्वी श्रमणियों के गणों की नायिका को भी गणिनी कहा जाता था। पूरे श्रमण संघ में जो स्थन आचार्य का होता था वही स्थान निग्रंथ संघ में प्रवर्तिनी का होता था। उसकी योग्यता भी आचार्य के बराबर थी अर्थात् आठ वर्ष की दीक्षा प्राप्त साध्वी औचार कुशला, प्रवचन प्रवीणा
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