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गिनाये गये हैं जिसका पालन करना श्रवकों के लिए अति आवश्यक बताया गया है। समराइच्च कहा में उल्लिखित उपर्युक्त अतिचारो को जैनाचार के अनुसार पाँचों अणुव्रतों के अन्तर्गत ही रखा जा सकता है।
श्रमणत्व-आचरण:-प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् श्रमणचर्या के लिए कुछ नियम-संयम तथा व्रत आदि आचरणों का पालन करना पड़ता था। समराइच्च कहा में श्रमणों के आचरण सम्बन्धी कुछ नियमों का उल्लेख है। ये आधरित नियम हैं-शत्रु मित्र को समान भाव से देखना, प्रमाद से झूठा भाषण न देना, अदत्त वर्जना, मन वचन और शरीर से व्रवर्यव्रत का पालन करना, वस्त्र पात्र आदि से प्रेम न रखना, रात्रि में भोजन न करना, विशुद्ध पिण्ड ग्रहण, संयोजन आदि पंचदोष रहित मित काल भोजन ग्रहण, पंच समित्व, त्रिगुप्तता, ईर्ष्या समित्यादि भावना, अनशन प्रायश्चित, विनय आद से बाह्य तथा आभ्यंतर तपविधान, भासादिक अनेक प्रतिमा, विचित्र द्रव्य आदि का ग्रहण, स्नान न करना, भूमि शयन, केशलोच, निष्पप्रति-कर्म शरीरता, सर्वदागुरू निर्देश पालन, भूख प्यास आदि की सहनशक्ति, दिव्यादि उत्सर्ग विजय, लब्ध-अलब्ध वृत्तिता आदि ।88 अत: मन, वचन और शरीर से अहिंसा तथा मन-वचन और शरीर से ब्रह्वर्य का पालन करते हुए ध्यान एवं अध्ययन में रत रहने का विधान था।89 श्रमणों के योग्य व्रतों की साधना कर्मों के क्षय रूप को निर्जरा करने वाली है। तप साधना ही निर्जरा के लिए विशेष रूप से उपयोगी मानी गयी है, जिनके मुख्यतयाँ दो भेद माने गये हैं-ब्राह्य
और अभ्यन्तर । अनशन, अवमौदर्य वृति परिसंस्थान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन एवं कायक्लेश ये छ: प्रकार के बाह्य तप हैं। आभ्यंतर तप भी छ: प्रकार के बताये गये हैं-प्रायश्चित, विनय वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान 90 समराइच्च कहा की भाति भगवतीसूत्र में भी श्रमणों के लिए दो प्रकार के तप-बाह्य और आभ्यन्तर गिनोये गये हैं।91 बाह्यतप के अन्तर्गत अनसन, अवमोदरिका (अवमोदर्य), भिक्षाचर्या, रसत्याग (दूध घी आदि का त्याग) कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग आदि नाम गिनाये गये हैं।
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