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________________ अत: स्पष्ट है कि श्रावकों के आचरण से भिन्न श्रमणों के लिए विहित तपश्चर्या के अन्तर्गत बाह्य और आभ्यन्तर ये दो प्रकार के तप माने गये हैं जिनके भेद-प्रभेदों से बारह प्रकार के तप कहे गये हैं। इन दो प्रकार के तपों के अलावा दशवैकालिक सूत्र में श्रमणों के लिए हिंसा, असत्य भाषण, चौरकर्म, संभोग, सम्पति, रात्रि भोजन, क्षितिशरीरो-जीवोत्पीड़न, वानस्पतिक जीवो-स्पीडन, जंगमजीवोत्पीड़न, वर्जित वस्तु, गृहस्थ के पात्रों मे भक्षण, पर्यंक प्रयोग, स्नान और अलंकार आदि वर्जित बताये गये हैं।92 इसी उत्तराध्ययन सूत्र में भी उल्लास निषेध, संयम, परनिन्दा, निषेध है । ये सभी आचरण सम्बन्धी नियम शुद्ध ज्ञान तथ मोक्ष प्राप्ति में सहायक माने जाते थे जो साधारण व्यक्तियों के अभ्यास से परे की बात समझी जाती जाती थी। समराइच्चकहा के अनुसार विभक्त ज्ञान युक्त श्रमण मणि-मुक्ता-कंचन आदि को तृण के समान समझते थे ।94 धर्माचरण का पालन करते हुए श्रमणत्व से ही अजरता और अमरता की प्राप्ति में विश्वास किया जाता था।95 तप-संयम का पालन करते हुए ममता आदि दुख मूल का नाश, सभी जीवों में मैत्री भाव पूर्व-दृष्कृत के प्रति शुद्ध भाव से जुगुप्सा, ज्ञान, दर्शन चरित्र आदि का पालन तथा प्रमाद-वर्जना का आचरण करते हुए ही परमपद की प्राप्ति संभव मानी जाती थी।7 एकान्त स्थान में स्वाध्याय, योग, तप, संयम आदि के द्वारा सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति ही श्रमणत्व का सार माना जाता था।98 चित्त की एकाग्रता तथा योग और संयम, में श्रमण शरीर का त्याग भी कर देते थे ।99 कभी-कभी ध्यान योग के समय दुष्टों द्वारा श्रमणों को जीवित जलकर मार डालने का भी संदर्भ प्राप्त होता है। अत: शुद्ध आचरण के परिणामस्वरूप ही नागरिकों द्वारा श्रमणों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था ।100 नायाध्म कहा में श्रमणों का जीवन तलवार की धार के समान कठिन बताया गया है ।101 बृहकल्प भाष्य से पता चलता है कि श्रमण व्रत भंग करने की अपेक्षा अग्नि में प्रवेश करना अधिक उचित समझते थे।102 ( 107)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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