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था। जैन धर्म का 'जीव' और अजीव का विवेक-ज्ञान सामान्य था। दोनों उक्त ज्ञान के प्रादर्भाव का स्रोत ‘सूत्रों और आगमों' को मानते थे ।।० सामान्य अनुयायियों के धर्म को 'देसविरति' ।17 कहा जाता था। इसी कारण जैन साधु सर्वप्रथम मुक्ति प्राप्त करते थे । सामान्य अनुयायियों के धर्म में द्वादश सिद्धान्त अन्तर्विष्ट थे18.-पाँच अनुभ्यास, तीन गुणाभ्यास और चार शिक्षाभ्यास।
पाँच अनुभ्यास:-पाँच लघुव्रतों को 'गृहवास योग्य नियम19 कहा जात था अर्थात वे व्रत जिन का अभ्यास एक गृहस्थ करता था-'शीलाभ्यास' और 'समत्त' । लघुव्रतों का वर्णन कहानी20 के रूप में किया गया है।
तीन गुणाभ्यास:-(1) दिग्व्रत, (2) देशव्रत, (3) अनर्थदण्ड व्रत दिग्वत के अन्तर्गत आवागमन पर प्रतिबन्ध है पुन: आवागमन के समय पर प्रतिबन्ध और व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा पर प्रतिबन्ध ।
चार शिक्षाभ्यास:-(1) सामायिक (2) पोसघोपवास (3) भोगाप भोगपरिमाण (4) और अतिथिसंविभाग एक गृहस्थ जब धर्म परिवर्तित हो जाता था तो लघुव्रतों के साथ इनका अनुपालन करता था। मन्त्री21 के पुत्र नंद की कहानी से यह सुस्पष्ट हो जाता है। शिक्षा व्रत ग्रहण करने के साथ एक सामान्य अनुयायी साधू जीवन व्यतीत करता था। सामायिक व्रत में अनुयायी मानसिक रूप से सांसारिक विचारों का त्याग दिन में एक निश्चित अवधि के लिये करता था तथा साथ-ही-साथ ध्यान और चिन्तन का भी अभ्यास करता था। पोस धोपवास
और भोगोप भोग परिमाण व्रत के अवसर पर वह अपना समय पोसहसाल में व्यतीत करता था एवं उसके आनन्द और भोगों की सामग्री पर प्रतिबन्ध था। चार शिक्षाव्रतों के अनुपालन में अनुयायी अपने भोजन-सामग्री का अंश, पवित्र, अआमन्त्रित मेहमान जैसे सन्यासी को प्रदान
करता था।
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