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समराइच्चकहा में व्यक्त उक्त दार्शनिक सिद्धान्त का साम्य आर सादृश्य भगवद गीता के निम्न उद्धृत सांख्य सिद्धानत से है
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश:12 ।
अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्म विभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ 'सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं (तो भी) जिसका अन्त:करण अहंकार से हित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘कर्ता मै हूँ ऐसा मानता है। परंतु हे महाबा हो गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्तव को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में वरत रहे हैं, ऐस समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।
सामान्य अनुयायियों की धार्मिक-चर्या-वासुदेव हिण्डी के अनुसार ऋषम जैन धर्म के प्रथम प्रवर्तक थे; परन्तु भरत सामान्य अनुयायियों के धार्मिक हितों का ध्यान रखते थे। उन्होंने प्रथम ऋषि की शिक्षाओं को 'संवायपन्नति में' सहिंताबद्ध किया।13 भरत सामान्य अनुयायियों को महान्14 की उपाधि प्रदान करते थे। अनुयायियों को उन्होने तीन समूहों में विभक्त किया था जो अनुयायियों के व्रतों के अभ्यास के आधार पर था:-जो लघु व्रतों (अनुभ्यास) का अभ्यास करते थे (2) लघुव्रतों और गुणभ्यास का अभ्यास करते थे (3) जो लघुव्रतों, का शिक्षाभ्यास (आचरण करते थे। भरत, अनुयायियों को अपने कागिनी रत्न से चिन्हित करते थे ताकि वे एक दूसरे से अलग अभिज्ञानित किये जा सकें ।15
उपासकों की धार्मिक चर्या श्रावक और श्रमणों के धार्मिक आचरण में कोई आधारभूत भेद नहीं था क्योंकि दोनो के नियमों का निर्धारण 'जिन' द्वारा किया गया था। वे दोनो ही उन्हीं पाँच व्रतों का अनुपालन और अभ्यास करते थे। अन्तर तात्विक नही था बल्कि सोपानपरक
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