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धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए (मैं) युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।
जैन कथाओं के रचनाकार स्वयं जैन धर्मावलम्बी थे, अत: जैन धर्म का सांगोपांग विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। दर्शन और आचार का व्यापक मानचित्र इनकी कथाओं में वर्तमान है। श्रावक के द्वादश व्रत, मुनि धर्म-व्रत, समिति, गुप्ति, परीषहजय, भावना, सात तत्व, कर्मक्षय करने का क्रम संसार असारता, कालप्ररुपणा, कल्पवृक्षों का वर्णन, मोगभूमि और कर्मभूमि की व्यवस्था, चारों आयु के बन्ध कारण, अन्य समस्त कर्मों के आस्रव, रत्नत्रय, संयम, नरक
और स्वर्ग के विस्तृत विवेचन, सिद्ध सुख का अनुपम वर्णन, व्रतों का अतीचार सहित विस्तृत विवेचन, उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी की व्यवस्था का वर्णन किया है।
__ जैन कथाकारों ने जैन धर्म के विवेचन के साथ इन कथाओं में दान, शील, तप और सद्भावना के रूप में लोकधर्म का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। यह लोक धर्म ऐहिक और परमार्थिक दोनों दृष्टियों से सुख और शान्ति का कारण है। जिसकी आत्मा में इन गुणों का विकास हो जाता हैं वह सत्कर्मी और संस्कारी बन जाता है। यह लोक धर्म वर्गगत और जातिगत विषमताओं से रहित है, मानवमात्र का कल्याण करने वाल है। जीवन की सारी अनैतिकताएं दूर हो जाती हैं और जीवन सुखी बन जाता है। इस लोक धर्म में किसी धर्म या सम्प्रदाय का गन्ध नहीं है। इन्होंने पूर्वकृत कर्मों की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए लिख
सव्वो पुवकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं।
अवरोहेसु गुणेसु य निमित्तमेत्तं परो होइ!1 ॥ अर्थात सभी व्यक्ति पूर्वकृत कर्मों के फल के उदय को प्राप्त करते हैं। अपराध करने वाला या कार्य सिद्धि में गुणों को प्रकट करनेवाला व्यक्ति तो केवल निमित्त मात्र होता है।
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