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पोसहव्रत के दो उदाहरण वासु देवहिण्डी से प्राप्त होते हैं; एक व्यवसायी सामिदत्त व्यवसायक कार्यों से चंदनपुर के भ्रमण पर निकला था वहाँ उसे एक गणिक अपने घर लिवा ले गई। सामिदत्त ने गणिका की किसी भी प्रकार की मेहमानी को स्वीकर नहीं किया क्योंकि वह पोसह व्रत का अभ्यास कर रहा था। उसका एक संदर्भ और प्राप्त होता है कि वह एक आसन पर पोसहसाला में बैठकर और आभूषणों को उतार कर राजाओं के लिये धर्म का प्रवचन कर रहा था। उसकी धर्म में स्थिरचित्त होने की अवस्था की परीक्षा एक यक्ष ने कबूतर औ बाज की सहायता से किया।23
इसी प्रकार शीलभ्यास व्रत के अनुपालन में उसकी स्थिरचित्तता की परीक्षा दो रानियों ने लिय जब वह पोस हसाला में पडिमा का अभ्यास कर रहा था। इस व्रत के साथ अठवें भोजन का उपवास संयोजित था। पोसह ब्रत के पूर्ण हो जाने पर पुन: उसने सांसारिक सुखों का आनन्द लेना प्रारम्भ कर दिया ।24
उपवास-वासुदेवहिण्डी के अनुसार जैन धर्म के अनुयायियों को उपवास का भी अभ्यास करना अनिवार्य था। पुस्तक में संदर्भित है कि अनुयायी चतुर्थ (चौथा) षष्ट (छठ्ठा) और अष्टम (अठ्ठम) उपवासों का पालन करते थे।25 चौथे प्रकार के उपवास में साठ बत्तीस और सैंतीस चौथा सम्मिलित थे। एक राजा क उल्लेख है कि वह 'आयम्बिल वद्धमान' उपवास का अभ्यास करता था।26 सामान्य अनुयाययों26 के धर्म में एकादश पडिमा भी सम्मिलित थे। धम्मित्व ने आयम्बिल उपवास का अभ्यास छ: मास तक किय जिसके परिणामस्वरूप उसका विवाह बत्तीस रूपवती कुमारियों के साथ हुआ।28 राजकुमार भागीरथी ने अट्ठमभट्ट का अभ्यास नागदेवता को प्रसन्न करने के लिए किया ।
पूजाविधि:-सामान्य अनुयायी 'जिन' की उन प्रतिमाओं की पूजा करते थे जिनसे वे सम्बन्धित थे। भानु श्रेष्ठी अपने पोसहसाला में 'जिन' की प्रतिमा के समक्ष दीपक जलाकर
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