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________________ प्रायश्चित्त मार्ग उदारता उदाहरण आगे के प्रकरण में देखिये। जिस प्रकार जैन शास्त्रों में हिंसा का दण्ड विधान है उसी प्रकार पांचों पापों का तथा अन्य छोटे बड़े सभी अपराधों का दण्ड विधान किया गया है। जैसे व्यभिचार का दण्ड विधान इस प्रकार बताया है: सुतामातृभगिन्यादिचाण्डालीरभिगम्य च । अश्नवीतोपवासानां द्वात्रिंशतमसंशयं ॥ १८० ॥ अर्थ-पुत्री, माता, बहिन आदि तथा चण्डाली आदि के साथ संयोग करने वाले नीच व्यक्ति को ३२ उपवास प्रायश्चित्त है। किन्तु हम देखते हैं कि इतना निकट का अनाचार ही नहीं किन्तु बहुत दूर भी अनाचार यदि किसी से हो जाय तो वह सदाके लिये बहिष्कृत कर दिया जाता है। यही कारण है कि आज जैनसमाजमें हजारों विनकावार (जातिच्युत) भाई घरके न घाटके' रह कर मारे मारे फिरते हैं । क्या ऊपर कहे अनुसार उन्हें प्रायश्चित्त देकर शुद्ध नहीं किया जा सकता ? __हमारे आचार्यों ने कहीं कहीं तो इतनी उदारता बताई है कि किसी एक अपराध के कारण वहिष्कार नहीं करना चाहिये। श्री सोमदेव सूरि ने यशस्तिलक चम्पू में लिखा है: नवैः संदिग्ध निहिर्विदध्याद्गणवर्धनम् । एकदोपकृते त्याज्यः प्राप्ततत्वः कथं नरः॥ ऐसे भी नवदीक्षित मनुष्यों से जाति की संख्या बढ़ाना चाहिये जो संदिग्ध निर्वाह है । अर्थात् जिनके विषय में यह सन्देह है कि वे जाति का आचार विचार कैसे पालन करेंगे ? किसी एक दोप के कारण कोई विद्वान जाति से बहिष्कृत करने योग्य कैसे हो
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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