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________________ ७४ जैनधर्म की उदारता AAV 441411 अर्थ -- माया मिथ्या और निदान इन तीनों शल्यों से रहित होकर उक्त छह श्रावकों को प्रमाद से या कपाय से गौ का बध हो जाने पर आदि में और अन्त में पष्ठोपवास तथा मध्य में २१ उपवास करना चाहिये । सौवीरं पानमाम्नातं पाणिपात्रे च पारणे | प्रत्याख्यानं समादाय कर्तव्यो नियमः पुनः ॥ १४१ ॥ अर्थ - और पारणा के दिन पाणिपात्र में कांजिकपान करना चाहिये । तथा चार प्रकार के आहार को छुट्टी होकर फिर श्रावक प्रतिक्रमण आदि नियम से करे | त्रिसंध्यं नियमस्यान्ते कुर्यात् प्राणशतत्रयं । रात्रौ च प्रतिमां तिष्ठेन्निर्जितेन्द्रियसंहतिः ॥ १४२ ॥ अर्थ - तीनों समय सामायिक करे तीन सौ उच्छास प्रमाण मायोत्सर्ग करे और इन्द्रियों को वश में करता हुआ रात्रि में भो प्रतिमा रूप तिठकर कायोत्सर्ग करे | द्विगुणं द्विगुणं तस्मात् स्त्रीवालपुरुपे हतौ । सहष्टिश्रावकर्षीणां द्विगुणं द्विगुणं ततः ॥ १४३ ॥ अर्थ-स्त्री, बालक और मनुष्य के मारने पर गौवध प्रायचित्त से दूना प्रायश्चित्त है । और सम्यग्दृष्टि श्रावक तथा ऋपिधात का प्रायश्चित्त उस से भी दूना है । इतना उदारता पूर्ण दण्ड विधान होने पर भी वर्तमान पंचायती शासन बहुत ही अनुदार, कठोर एवं निर्दयी बन गया है । मनुष्यबात की बात ही दूर रही मगर यदि किसी से अज्ञात दशा में भी चिड़िया का डा तक मर जाय तो उसे जाति बन्द कर देते हैं और मन्दिर में आने की भी मनाई करदी जाती है। इसके
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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