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प्रायश्चित्त मार्ग उदारता
होने वाले पांच महा पातकों का निरूपण इस प्रकार है:षण्णां स्याच्छ्रावकाणांतु पंचपातकसन्निधौ । महामहो जिनेन्द्राणां विशेषेण विशोधनम् ॥ १३६॥ - प्रायश्चित्तचूलिका । अर्थात् - श्रावकों को मुनियों के प्रायश्चित्त से चतुर्थांश प्रायश्चित्त तो दिया ही जाता है ( ऋषीणां प्रायश्चित्तस्य चतुर्थभागः श्रावकस्य दातव्यः ) किन्तु इसके अतिरिक्त छह जघन्य श्रावकों का प्रायश्चित्त और भी विशेष है । सो कहते हैं, गौबध, स्त्री हत्या, बालघात, श्रावक विनाश और ऋषि विघात ऐसे पांच पापों के बन जाने पर जघन्य श्रावकों के लिये जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करना विशेष प्रायश्चित्त है ।
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इस से सिद्ध है कि हत्यारे से हत्यारे श्रावक की भी शुद्धि हो सकती है। और उस शुद्धि में जिनपूजा करना विशेष प्रायश्चित है । किन्तु हमारी समाज के अत्याचारी दण्ड विधान से मालूम होगा कि पंघराज जरा जरा से अपराधों पर जैनों को समाज से - मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देते हैं और उन्हें जिनपूजा तो क्या जिनदर्शन तक का अधिकार नहीं रहता है ।
हमारा शास्त्रीय प्रायश्चित्त विधान तो बहुत ही उदारतापूर्वक किया गया है । किन्तु शास्त्रीय आज्ञा का विचार न करके आज समाज में मनमानी हो रही है। यदि शास्त्रीय आज्ञाओं को भली भांति देखें तो ज्ञात होगा कि प्रत्येक प्रकार के पाप का प्रायश्चित्त होता है । प्रायश्चित्तचूलिका के कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं:आदावते च पष्ठं स्यात् क्षमणान्येकविंशति । प्रमादाद्गोवधे शुद्धिः कर्तव्या शल्यवर्जितैः || १४० ॥