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________________ माया १. जइ वि य णिमणे किसे चरे, जइ वि य भुजेमासमंतसो। जे इह मायाइ मिज्जइ, आगंता गन्भाऽणंतसो ।। -सूत्रकृतांग ११२।११९ भले ही नग्न रहे, मास-मास का अनशन करे और शरीर को कृश एवं क्षीण कर डाले, किन्तु जो अन्दर में दम्भ रखता है, वह जन्म-मरण के अनन्तचक्र में भटकता ही रहता है। २. माई पमाई पुण एइ गम्भं । -आचारांग ११३१ मायावी और प्रमादी बार-बार गर्भ में अवतरित होता है, जन्म मरण करता है। वसीमूलकेतणसमाणं मायं अणुपविठे जीवे, कालं करेइ रइएसु उववज्जति । -स्थानांग ४।२ बांस की जड़ के समान अतिनिविड़-गांठदार दम्भ आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है। ४, मायी विउव्वइ, नो अमायी विउव्वइ । -भगवती १३९ जिसके अन्तर में माया का अंश है, वही विकुर्वणा (नाना रूपों का प्रदर्शन) करता है। अमायी (सरल आत्मावाला) नहीं करता।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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