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________________ ६. .सयणस्स जणस्स पिओ, गरो अमाणी सदा हवदि लोए । णाणं जसं च अत्यं, लभदि सकज्जं च साहेदि । -भगवती आराधना १३७६ निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन-सभी को सदा प्रिय लगता है । वह ज्ञान, यश और सम्पत्ति प्राप्त करता है तथा अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है। मानश्चित्तोन्नतिः। - अभिधान-चिन्तामणि २।२३१ ____ मन की उद्धतता का नाम ही मान है। ८. जे माणदंसी से मायादंसी। -आचारांग ३३४ जो मान करता है, उसके हृदय मे माया भी रहती है। ६. उन्नयमाणे य नरे महामोहे पमुज्झइ। -आचारांग ॥४ अभिमान करता हुआ मनुष्य महान मोह से मूढ़ होकर विवेक शून्य हो जाता है। १०. जाति-लाभ-कुलश्वर्य - बल-रूप-तपः श्रुतः। कुर्वन् मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः ।। -योगशास्त्र ४३१३ जाति-लाभ-कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तप और ज्ञान का मद करता हुआ जीव भवान्तर मे हीन-जाति आदि को प्राप्त करता है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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