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१.
पव्वयरा इसमाणं कोहं अणुपविट्ठे जीवे । कालं करेइ णेरइएस उववज्जति ।।
४.
पर्वत की दरार के समान जीवन म कभी नही मिटनेवाला उग्र क्रोध आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता है ।
२.
कुद्धो सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज ।
जे चंडे मिए थद्ध दुव्वाई बुझइ से अविणायप्पा, कट्ठ
क्रोध
- प्रश्नव्याकरण २।२
क्रोध में अंधा हुआ व्यक्ति, सत्य, शील और विनय का नाश कर डालता है ।
— स्थानांग ४।२
अपने-आप पर भी कभी क्रोध न करो । कोहविजए णं खंत जणयई ।
नियडी सढे । सोयगयं जहा ।
६२
जो मनुष्य क्रोधी. अविवेकी, अभिमानी, दुर्वा दी, ( कटुभापी) कपटी और धूर्त है, वह ससार के प्रवाह मे वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह मे काष्ठ |
अप्पाणं वि न कोवए ।
- दशवैकालिक हा२३
उत्तराध्ययन ११४०
- उत्तराध्ययन २६/६७
ोध को जीत लेने से क्षमाभाव जागृत होता है । पासम्म बहिणिमायं, सिसुपि हणे कोहंधो ।
- वसुनन्दिश्रावकाचार ६७