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________________ कषाय ५. ७. ε. ५६ श्रमणधर्म का अनुकरण करते हुए भी जिसके क्रोध आदि कषाय उत्कट हैं तो उसका श्रमणत्व वैसा ही निरर्थक है, जैसा कि ईख का फूल । अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । हु मे वीससियव्वं, थोवं पि हु ते बहूं होइ ॥ - आवश्यक नियुक्ति १२० ऋण, व्रण ( घाव) अग्नि और कपाय, यदि इनका थोड़ा-सा अंश भी है तो उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ये अल्प भी समय पर बहुत [ विस्तृत ] हो जाते हैं । अकसायं खु चरितं, कसायसहिओ न संजओ होई । - वृहत्कल्पभाष्य २७१२ अकपाय [ वीतरागता ] ही चारित्र है । अतः कषायभाव रखने वाला संयमी नहीं होता । जह कोहाइ विवढ्ढी, तह हारणी होड चरणे वि । - निशीथभाष्य २७६ ज्यों-ज्यों क्रोधादि कपाय की वृद्धि होती है । त्यों-त्यों चारित्र की हानि होती है । जं अज्जिय चरितं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए । तपि कमाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तणं ॥ - निशीथभाष्य २७९३ सोनकोटिपूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अर्जित किया है, वह अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्वलित कषाय से नष्ट हो जाता है । कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो ॥ - दशवेकालिक ८|३७
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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